Tuesday 24 February 2009

भारतीय मीडिया का यह कौन-सा पथ है?

पत्रकारिता खो गई... पत्रकारिता खो गई...
देखने में है आदर्श, समाज का है लोचन
खो गई...

इस तरह के गीत गाकर शाहरूख खान फिल्म ‘चलते-चलते’ में अपनी प्रेमिका को खोजता है। पर आज हम अपने लोकतंत्र में पत्रकारिता की तलाश कर रहे है।
भारत के आजादी के बाद स्वतंत्र लोकतंत्र का चौथी सत्ता नए अंदाज में सामने आया। समय के विकास के साथ-साथ मीडिया निखरने लगा और नवरंग चढ़ने लगा। तब किसी ने पुचकारा-दुलारा-सराहा तो कहीं आलोचनाओं का सबब बना। देश में आपातकाल के दौरान इसके पंख कतर दिए गए। लेकिन बाद मे मीडिया को स्वतत्र छोड़ दिया गया। फिर नए रूप में पंख आ गए और हर तरफ उड़ने की आजादी मिल गई।

अब पिछले एक दशक से इसमें नया आयाम जुड़ा है- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। इस मीडिया ने हर घर के डायनिंग रूम में बैठकर लोगों से खूब तारिफे बटोरी और थोडे़ दिन बाद अपनी लोकप्रियता को देखते हुए रूतवे के साथ-साथ नजरिए में ध्वनि गति से बदलाव कर डाला। अब मीडिया के इस नए आयाम का मुख्य काम समाज और सरकार पर नजर न रखकर टीआरपी और धन के आगमन के स्त्रोतों का ख्याल करना है।

इसके पर्दे पर फिल्मकारिता, खेलकारिता, व्यवसायकारिता, सीरियल और ठहाकेकारिता होता है। इन विषयों पर यहां पैकेज बनते हैं, प्रोग्राम बनते हैं जो इस मीडिया का एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग न्यूज कहलाता है। ऐसे खबरों से टीवी चैनलों के संपादक अपने को सबसे पहले और सबसे आगे होने का दम-खम दिखाते है। लेकिन असहायों, दलितों, मजदूरों, किसानों और शोषितों की ताकत और आवाज कहलाने वाली इस मीडिया में अब इनके लिए तनिक जगह भी शेष नहीं है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस तरह के प्रसारणों को इन दिनों के कुछ लोग इसकी बालावस्था कहते हैं? किन्तु दुनिया के सबसे बड़े तंत्र का हिस्सा बचपना की आड़ में सामाजिक जिम्मेदारियां से पीछे नहीं मुड़ सकती है। लोगों के बीच आवाज उठने लगी है कि सामाजिक स्वतंत्रता और जनता की अभिव्यक्ति के नाम पर मीडिया काम करती है, वह तो कहीं नजर नहीं आता है। इस मीडिया में विजुअलाइजेथन और प्रेजेन्टेशन की वह योग्यता नहीं है जो, संचार के दृश्य-श्रव्य माध्यम के लिए जरूरी होती है।

पिछले दिनों दिल्ली में चरमपंथियों द्वारा बम धमाके के प्रस्तुतीकरण और उसके कंटेंट को लेकर देश के एक प्रतिष्ठित समाचार चैनल के दो बड़े अधिकारी आपस में बहस करते और कम्प्यूटर के की-बोर्ड पटकते देखे गए। उनमें बहस छिड़ी थी कि उक्त सनसनी को प्रस्तुत कैसे किया जाए। स्टूडियो में एंकर बैठाकर घटनास्थल से संवाददाता का लाईव किया जाए या क्रिकेट मैच की तरह फूटेज दिखा बैकग्राउंड से एंकर की ऑडियो चलाकर प्रस्तुत किया जाए। दो घण्टे तक उठापटक चलती रही और खूनी ताण्डव के तस्वीरे लाईव जाते रहे। बाद में किसी तरह बला टला। लेकिन किसी अधिकारी ने यह जरूरत महसूस नहीं किया कि इस घटना से जुड़े कारण और राहत कार्य से संबंधित सरकारी अधिकारी से बातचीत किया जाए या धटनास्थल से मात्र चार-पांच किलोमीटर पर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और संबंधित मंत्रियों के आवास पर जाकर घटना के कारण का जवाब तलब किया जाए।

जनमानस की शिकायत है कि समाचार चैनलों पर राजनैतिक रैलियों के भाषण की तरह एक बात को बार-बार कहकर और जुलूस के झंडों की भॉति एक शॉट को बार-बार घुमाकर दर्शकों के सामने जुलूस निकालने को पत्रकारिता की अत्याधुनिक तकनीक की संज्ञा दी जा रही है। शायद इस विधा से जुड़े संपादक मण्डली भूल गई है कि जिस मंच पर काम कर रहे है वह पत्रकारिता का मंच है, देश की चौथी सत्ता है। टीआरपीकारिता के चकाचौंध में कौन से मंच पर क्या करना चाहिए। इस शिष्टाचार को नजरअंदाज किया जा रहा है या मालूम नहीं है? इसका जवाव मीडिया के कर्ताधर्ता ही पत्रकारिता के तराजू पर खुद को तौलकर बता सकते हैं?

भारतीय लोकतंत्र में मीडिया को चौथी सत्ता कहा गया है। इसलिए पूंजीपतियों और मीडिया मालिकों से अपेक्षा करते हैं कि आप विदेशी मीडिया के मुकाबले अपने व्यवसाय को उन्नत कीजिए, स्वयं धन और यश कमाईए। परन्तु यह न भूल जाए कि टीआरपी और धन आपके खबरों में जनता की दिलचस्पी से बनता है। आपकी सच्ची सहायता उन लोगों से आती है, जो आपके खरीददार हैं, जो मर-खपकर आपका खबर बनाते हैं। बुद्धि के एरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो प्रयास हो रहा है अथवा ऐसे प्रयास से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे कतई पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता है। यह भारतीय मीडिया का कौन-सा पथ है? आजतक यही उम्मीद रही है कि हम चालबाजियों और दांव-घातों स देश को विकसित कर लें। इसके लिए हमारे यहा के बड़े-बड़े दिमागों ने खूब राजनीतिक चालें चलीं और वे देशहित चिंतक भी कहलाते रहे और शासकों के विश्वासपात्र भी। किन्तु उनमें सम्पूर्ण प्रयत्नों के रहते हुए भी आजादी के 61वें साल बाद भी देश में विकास के नाम पर आशा और निराशा के मंजर दिखने लगा है। इसके बावजूद मीडिया पर खेलने और नाचने-गाने का विनोद सवार है। उसे नहीं सूझता कि देश की जनता के शरीर पर चीथड़ा, पेट में टुकड़ा और सिर पर खपड़ा नहीं है। ऐसी ही परिस्थिति में गोखले जी के मुंह से निकला था, भारत के भाग्य में निराशाओं में काम करना बदा है, अपार काम सामने है और काम करने वालों का टोटा है।

पत्रकारिता के लिहाज से यदि भारतीय मीडिया ने देश के उस समूह की भी ख्याल की होती जो बेपढ़ा कहलता है और जो सौ में सत्तर है, निराशा में भी उनको आशा का संदेश दिया होता, तो जिन वस्तुओं की प्राप्ति मीडिया चाहता है, उसे प्राप्त कर लिया होता। हमारे राष्ट्र में जो सज्जन कर्मण्य व कलमपकड़ समझे जाते है वो अपने शासक से सीखकर यह पथ पकड़ लिया है कि कहा जाए कुछ और किया जाए कुछ।

इस तरह के नाटक के सहारे ही हमने दो शताब्दी की गुलामी दिखाई और परिणाम देखा कि दुनिया में कोई चीज नहीं है जिसका मिसाल हम बन सकें। इसलिए जिन सज्जनों को यह ख्याल है कि वो धोखेबाजी से, कूटनीति से भारतीय मीडिया को विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा देंगे, वे न तो अब खुद ही धोखे में रहे और न देश को अधिक धोखा दें।

दर्शकों और पाठकों के दिल में रजने-बसने के लिए भारतीय मीडिया को वह धोखेबाजी नहीं चाहिए जो एक दशक गुजार कर भी आलोचना का शिकार बना दे। भारतीय मीडिया को उस कला की जरूरत है, जो जनता की ताकत और आवाज बने, चाहे कीमत कुछ भी चुकानी पड़े। किन्तु जिसका एक मात्र लक्ष्य हो पत्रकारिता। वह सब दे जो सदैव समय की मांग हो और जिसे देने के बाद विकसित भारत की पीढ़ियां अपने देश की पत्रकारिता पर गर्व कर सकें।

जुल्मों की दास्तां नमक का महाबाड़

भारत की गरीबी और भ्रष्टाचार, ब्रिटिश शासन के छल कपट और फरेब, देश के रजवाड़ों का बिकाऊपन। इन सब जुल्मों का निकाय एक बहुत ही मामूली चीज के कारोबार में सारी झलक दिखा देता है।

राय मैक्सहम की पुस्तक दी ग्रेट हैज पूरे सबूतों के साथ इसे बताती है कि 350 वर्षों के ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रजों ने करोड़ों भारतीयों के खून की होली ही नहीं खेला बल्कि नमक जैसी जरूरी चीज से वंचित कर उनके शरीर और मानसिकता का पीढ़ियों तक क्षय कर दिया है। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नमक पर लागू किए गए कर वसूलने के लिए एक ऐसी अमानवीय व्यवस्थाएं गढ़ी जिसके समांतर व्यवस्था दुनिया में कहीं और कभी नहीं मिलती है। देश के एक बड़े हिस्से में ऐसी कस्टम लाईन बनाई गई थी कि कोई असमान्य व्यक्ति ही उसे पार कर सकता है। सन् 1869 में बनी सिंधु नदी से लेकर महानन्दी तक फैली 2,300 मील लंबी इस कस्टम लाईन की सुरक्षा के लिए लगभग 12,000 सेना तैनात था। यह कस्टम लाईन कटीली झाड़ियों और पेड़ों से बनी एक विशालतम लंबी और अमेद्य करने की कहानी सन् 1757 में राबर्ट क्लाईव की बंगाल विजय से शरू हुई थी। बंगाल विजय के बाद कम्पनी ने ऐसी बहुत सी जमीन खरीदी, जिस पर नमक उद्योग चलता था। रोतों-रात कंपनी ने जमीन का किराया दुगना कर दिया और नमक पर निकासी कर लगा दिया।

सन् 1964 में बिहार, उड़ीसा और बंगाल की दीवानी और सारी आय अपने हाथों में ले लिया। क्लाईव के नेतृत्व में कम्पनी के 61 वरिष्ठ अधिकारियों ने एक नई एक्सक्लूसिव कंपनी बना ली थी। नमक, सुपारी व तेंदु पत्तों के व्यापार पर एकाधिकार इस नए कम्पनी को दे दिया गया था। अब कम्पनी को छोड़ नमक के व्यापार से जुड़े़ सभी लोगों का कारोबार गैरकानूनी हो गया था। कम्पनी के अलावा कोई भी नमक न पैदा कर सकता था, न बेच सकता था। इसके साथ ही नमक पर लगा टैक्स और बढ़ा दिया गया। सन् 1780 में नमक कर से कम्पनी को 70 लाख पौंड की कमाई हुई थी।

गौरतलब है कि नमक जैसी चीज साधारण चौके से बाहर हो गई थी। तब आसपास के रजवाड़ों और खासकर उड़ीसा की नमक क्यारियों का सस्ता और बेहतरीन नमक चोरी छुपे बंगाल में आने लगा। इससे नए एक्सक्लूसिव कंपनी को नुकसान होने लगा। इसे रोकने के लिए सन् 1804 में कंपनी ने उड़ीसा पर चढ़ाई कर सारा नमक उत्पादन अपने कब्जे में ले लिया। समुद्र किनारे बसे जो प्रदेश समुद्र के खारे पानी को क्यारियों में फैलाकर सूरज की किरणों से सहज ही नमक बनाकर समाज में बेहद सस्ते दाम पर बेचते थे। उसे कम्पनी ने अपने पुश्तैनी धंधे में लगे रहने पर अपराधी बता दिया। हर हाल में नमक का पूरा टैक्स वसूलने के लिए लामबंद कंपनी का सख्त प्रशासन और सस्ते नमक पाने के लिए तरसते साधारण जनमानस समय के साथ सती होने के कगार पर खड़ा था। इसी से जन्म हुआ नमक कर वसूलने के लिए कस्टम लाईन, जो आगे चलकर महाबाड़ बन गई।

यह महाबाड़ दो चार ब्रितानी लोगों का बेहूदा फितूर नहीं था। यह आम भारतीयों को सहज उपलब्ध नमक से वंचित रखने के लिए तैयार किया गया एक षडयंत्र था। इसे बेहद कड़ी निगरानी और बेरहमी से लागू करने में कई प्रबुद्ध अंग्रेज अधिकारी तैनात किए थे।

नमक के टैक्स की पूरी और पक्की वसूली के लिए, कम्पनी प्रशासन ने हर जिले में एक कस्टम चौकी नाका बनाया था। यहां से कर चुकाने के बाद ही नमक आगे जाता था। फिर अधिकारियों ने पाया कि लोग चोरी-छुपे नाके से नमक आगे ले जाते हैं। 1823 में कम्पनी ने यमुना से लगे सभी सड़कों, रास्तों और व्यापार मार्गों पर भी कस्टम चौकियों की एक श्रृंखला तैनात कर दी। 1834 में प्रशासनिक निर्णय हुआ कि सभी चौकियों को आपस में जोड़ दिया जाए। चौकियों की सही अनवरत श्रृंखला महाबाड़ बनी।

बेहद ही सख्त और जबर्दस्त थी बाड़ की व्यवस्था। इसके हर मिल पर चौकी, चौकी पर गार्ड दस्ता, हर दो चौकियों को जोड़ता एक उंचा पुश्ता, पुश्ता पर 20-40 फीट चौड़ी और लगभग 20 फीट उंची कहीं सजीव कहीं सूखी कटीली बाड़। हर एक मील पर एक जमादार तैनात। हर जमादार के नीचे दस गुमाश्ते। दिन-रात लगातार गश्त। ताकि कोई भी हिन्दुस्तानी नमक कर चुकाए बगैर गलती से भी नमक गबन कर जाए।

देशभर में हर वर्ष कस्टम लाईन पर हजारों नमक तस्कर पकड़े जाते थे। गुमश्तों और तस्करों के बीच झगड़े-फसाद और मारपीट की कई वारदातें होती थी। भयानक पिटाई से कई लोगों की जान भी गई थीं। पकड़े जाने पर नमक चुराने की सबसे लंबी सजा थी बारह बरस थी।

सन् 1825 में भारतीय ब्रिटिश सरकार का कुल राजस्व था अस्सी करोड़ पौंड। इसमें से पच्चीस करोड़ पौंड सिर्फ नमक कर से वसूला गया था। यानि भारतीय नमक कर से अंग्रेज खजाने का तीसरा हिस्सा भरा जाता था।

जब बाड़ की अभेद्यता और नमक तस्करी रूकने लगी तब ब्रिटिश प्रशासन की राय भी बदलने लगी। कुछ ही सालों में लोगों को डरा-धमकाकर, खिला-पिलाकर, फुसलाकर अंग्रेज प्रशासन ने औने-पौने दामों पर रजवाड़ों के नमक का सारा उत्पादन हथिया लिया और नमक पैदा होने की जगह पर एक मुश्त टैक्स लगा दी। फिर 1879 में पूरे भारत में नमक पर एक सरीखा शुल्क लागू कर दिया गया। अब न सस्ता नमक रहा, न रही तस्करी। इस तरह से कर एकीकरण के बाद महाबाड़ को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।

चंबल के बीहड़ में 20 फुट चौड़ा और 20 फुट ऊंचा पुश्ता पर बेर की झाडि़यों से बना कस्टम लाईन, जिस पर बबूल, कीकर और खैर की कंटीले झुंड बिछे पड़े हैं। जहां-तहां नागफणियां और तरह-तरह की कटीली झाड़ियों के जंगल आज भी अंग्रजों के जुल्मों की कहानी बया करता वह महाबाड़ खड़ा है।

महिला हाट बने

"भारत सेवा संस्थान" के अध्यक्ष रेनाना झाबवाला से महिला कामगारों के विकास पर एक मुलाकातः

भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में महिला मजदूरों को हक दिलाने के लिए आए किस तरीके से सोचती हैं?
भूमंडलीकरण के बाद जमाना बहुत बदल गया है। इला बहन ने 1972 में सेवा संस्था शुरू की थी और मैं इससे 1977 में जुड़ी। उस समय सेवा बहुत ही छोटी-सी संस्था थी। हम लोग मजूर महाजन के दफ्तर में बैठते थे। तब समझा जाता था कि ये जो असंगठित क्षेत्र की महिलाएं हैं, जो कारखाने के बाहर काम करती हैं, आने वाले समय में संगठित हो जाएंगी। इनके लिए फैक्टरी बन जाएगी, वर्कशाप बन जाएंगे। लेकिन हम भ्रम में थे। सब कुछ उल्टा हुआ। कारखाने एक के बाद एक बंद होने लगे। असंगठित क्षेत्र बढ़ता चला गया। आज कारखानों में पुरूषों के साथ महिलाएं काम कर रही हैं। दुसरे कामगार ज्यादातर छोटे-मोटे स्वरोजगार में लगे हैं, क्योंकि नौकरियां कम होती जा रही हैं। ऐसे हालात में मजदूरों को कैसे संगठित करना है, इसे हमने पिछले पंद्रह सालों में सीख लिया है, इसलिए जो खेतों में काम करती हैं, जो घर में बैठ कर पापड़ या बीड़ी बनाती हैं, जो कैसे संगठित किया जाए। उनके लिए संगठन का मतलब क्या है, इसका अर्थ ‘सेवा’ से निकला है। उनका शोषण पहले से ज्यादा बढ़ा है। उन पर कई तरह बंदिशें हैं। जैसे सड़क किनारे जो कुछ बंचते हैं उनका तो कोई मालिक ही नहीं है, लेकिन उनका शोषण पुलिस और नगरपालिका वाले कर रहे हैं। गुंडे भी उन पर हावी रहते हैं। सरकार उन्हें अपना छोटा-सा धंधा करने के लिए थोड़ी-सी भी जगह नहीं देती है। ऐसे में वे सड़क के किनारे अपना धंधा करते हैं तो उसे गैरकानूनी करार दिया जाता है। और उनके धंधे का गैरकानूनी बता कर उन्हें तंग किया जाता है। ऐसे में उन्हें संगठित होना जरूरी लगता है। संगठित होकर ही वे पुलिस से, नगरपालिका के कर्मचारियों से और गुंड़ों से बचने का रास्ता निकाल सकती है।

ऐसे हालात में महिला मजदूरों को संगठित करने के तरीकों का क्या स्वरूप होगा?
आज के समय में एक नए तरह की ट्रेड यूनियन की जरूरत है, जिसे व्यावहारिक धरातल पर लाने की कोशिश सेवा कर रही है। सेवा की सबसे पहली कोशिश महिला मजदूरों को संगठित करने की है। उन्हें अपने हकों के लिए लड़ना है। लेकिन हक मालिक से नहीं, सरकार से मांगने हैं। यह काम केवल एक इलाके में ट्रेड यूनियन बना लेने से सिरे नहीं चढ़ेगा। इसके लिए सभी महिला मजदूरों को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर लोगों को जागरूक करना होगा। भूमंडलीकरण की वजह से पूंजी भी ग्लोबल हो गई है। लेकिन कामगार ग्लोबल नहीं हुए हैं। इसलिए पूंजी से मुकाबला करने के लिए अंतराष्ट्रीय होना पड़ेगा। यही काम सेवा संस्था अपने सदस्यों के बीच कर रही है।

महिला कामगारों को संगठित करने में क्या समस्याएं हैं?
महिलाओं का घर से बाहर निकलना मुश्किल है। कुछ महिलाएं मजदूरी के लिए घर से बाहर निकलती है, लेकिन कुछ काम भी आठ घंटे से ज्यादा करती हैं और घर से बाहर नहीं आना चाहती हैं। ऐसी महिलाएं पचास फीसद हैं जो बाहर आकर बैठक करने में संकोच करती हैं और सच्चाई यही है कि वे जब तक घर से बाहर बैठकें नहीं करेंगी तब तक उनका संगठन नहीं बनेगा। ये महिलाएं घर में पापड़, बीड़ी और अन्य चीजें बनाती हैं लेकिन पूछने पर वे जवाब देंगी वे कुछ नहीं करती हैं। वे अपनी पहचान बनाने के लिए आगे नहीं आना चाहती हैं। वे खुद को देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा ही नहीं समझती हैं। इन महिलाओं का विचार बदलना बहुत ही मुश्किल है।

महिला हाट की क्यों जरूरत है? इसकी क्या संभावना है?
जो वेंडर लोग हैं हमारे देश में, वे परंपरागत तौर से काम कर रहे हैं, लेकिन शहर के आधुनिकीकरण में इनकी कोई स्थान नहीं रहा। नगरपालिका या नगर निगम के जो कानून हैं वे ब्रिटिश कानूनों के आधार पर बने हैं। इन कानूनों के मुताबिक शहर की जमीन की मालिक नगरपालिका है, इसलिए वहां की जमीन पर तभी कोई गरीब मजदूर या महिला व्यापारी कुछ बेच सकती है जब उसे सरकारी लाइसेंस मिलेगा। मतलब योजनाओं में सड़क पर रोजगार करने वाली महिलाओं को कोई स्थान नहीं है। अपने देश में इस तरह के कामगारों की संख्या एक करोड़ से अधिक है। यह जो पूरी लड़ाई है, ये हमारे शहरों के अंदर की जगह के लिए है। इस जमीन पर कोई छोटा-सा रोजगार शुरू करती है तो उसे गैरकानूनी करार दिया जाता है। दूसरी तरफ ऐसी जमीन पर गुंड़ों का भी बोलबाला रहता है। महिलाएं इस कारण खदेड़ दी जाती हैं और पुरूष ही वहां किसी तरह जम पाते हैं। इसलिए हम महिला हाट बनाने की मांग करते हैं, ताकि कामगार महिलाएं वहां सुरक्षित होकर अपने छोटे से छोटे रोजगार आसानी से कर सकें। हमारे देश में छोटे-छोटे रोजगार की परंपरा रही है, इससे मध्य वर्ग के लोगों को रास्ते में जरूरत के सामान मिलते हैं।

महिला यूनियन के लिए सेवा पच्चीस लाख सदस्य बनाने पर क्यों जोर दे रही है?
यूनियन बढ़ाने के लिए। और सेवा पच्चीस लाख सदस्य पूरे देश में बना पाती है तो महिला मजदूरों के यूनियन की पहचान देश-विदेश में बनेगी। इससे उनको कई तरह के सहयोग मिलने के साथ उनकी कई तरह की परेशानियां भी दूर होंगी।

22 फरवरी 2009 को जनसत्ता के रविवारी में प्रकाशित हुई है।

पटना में पनपता कैसेट रिकार्डिंग व्यवसाय

संगीत की दुनिया में दुनिया भर के संगीत की जैसी धूम इस दशक में मची है, इससे पहले शायद कभी रही। जाहिर है, संगीत की तकनीक और रिकॉडिंग आदि की सुविधाएं बढ़ने से इस क्षेत्र में जबर्दस्त बदलाव आया है और इससे जुड़ी प्रतिभाओं की बड़ा बाजार मिला है। बाजार की मांग और पूर्ति के मद्देनजर स्थानीय स्तर पर भी गीत-संगीत की रिकॉडिंग की पहल हुई है और इसने न सिर्फ बड़ी कंपनियों के वर्चस्व को चुनौती दी है, बल्कि स्थानीय बोली-भाषा संगीत और संस्कार को भी एक नया आयाम दिया है। इस कड़ी में बिहार ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है। गीत-संगीत की समृद्ध परंपरा वाले इस प्रेदेश में प्रतिभाओं की कमी नहीं, बाजार भी कम नहीं, लेकिन बड़ी और राष्ट्रीय स्तर की कंपनियों तक पहुंच की प्रक्रिया न सिर्फ कठिन है, बल्कि नजरिया भी तंग है। ऐसे में कुछ उत्साही लोगों द्वारा इस क्षेत्र में की गई शुरूआत निश्चित ही शुभ संकेत है। जानकारी के मुताबिक गीत-संगीत के कैसेटों की रिकॉडिंग की पहल पटना में सन् 1984 में डब्बू शुक्ला ने की। आज अकेले पटना में ऐसी आधा दर्जन से अधिक रिकॉडिंग स्टूडियो कार्यरत हैं। बताते हैं कि देश की कई जानी-मानी कंपनियां पटना के इन स्टूडियों की सेवाएं लेती हैं और अपने ब्रांड नाम से भी उन कैसेटों को जारी करती है, जिनकी रिकॉडिंग पटना के स्टूडियो करते हैं। जाहिर है, व्यवसायिक नजरिए से पटना के ये स्टूडियो लगातार अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं और गुणवत्ता के हिसाब से किसी भी स्टूडियो से होड़ लेते दिखते हैं।
बिहार में गीत-संगीत की मजबूत परंपरा जहां इसके दोहन की संभावना से भरी है, वहीं फाकामस्ती में गीत-संगीत को सुनने और चाहने वालों की बड़ी तादाद इसे एक बड़े बाजार के रूप में तब्दील करती है। यदि रिकॉडिंग की सुविधाओं के साथ-साथ मार्केटिंग की विधिवत और व्यापक व्यवस्था बने तो कोई कारण नहीं कि यह एक जबर्दस्त मुनाफे का कारोबार साबित हो रहा है।
बिहार में संगीत बाजार शुरू करने का श्रेय विविध स्टूडियो के संचालक रोहित डब्बू को है, और आज यह एक बाजार बेहतर व्यवसाय के रूप में बढ़ रहा है। वर्तमान में छह रिकॉडिंग स्टूडियो पटना के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित हैं। जहां क्षेत्रीय भाषाओं के गानों की रिकॉडिंग की जाती है। क्षेत्रीय भाषाओं में भोजपुरी, अंगिका, मगही, मैथिली प्रमुख है। इनमें सबसे लोकप्रिय भोजपुरी है। फिर अंगिका इन गानों के जरिए अपनी किस्मत संवारते कई गायकों को जबर्दस्त लोकप्रियता मिली है। इन गायकों में गुड्डू रंगीला, भरत सिंह शर्मा व्यास, छैलाबिहारी, मनोज तिवारी, बिजली रानी, कल्पना, मीनू अरोड़ा, अजीत कुमार अकेला, प्रियंका आदि के प्रमुख नाम है, जिन्होंने बिहार के संगीत को नई पहचान दी है। अवसर चोहे दुर्गा पूजा का हो या होली और सावन का सभी अवसरों पर थिरका देने वाले इनके गीतों के जादू से कोई भी अछूता नहीं। जाहिर इन्हें अपने कला के प्रदर्शन के लिए रिकॉडिंग स्टूडियो का सहारा मिला और इन स्टूडियो को इनका साथ। एक एलबम बनाने में एक टीम का अथक परिश्रम होता है। इस टीम में गायक, गीतकार, संगीतकार, और संयोजक आदि होते हैं। टीम के आपसी तालमेल से रिकॉडिंग संभव हो पाती है। बेहतर उच्चारण, तकनीकी ज्ञान, सुर-ताल की जानकारी और तालमेल से कार्य करने की क्षमता हो तो इस क्षेत्र में कैरियर बनाया जा सकता है। बिहार का यह छोटा-सा संगीत बाजार धीरे-धीरे ही सही परवान चढ़ रहा है और अनुकूल हवा-पनी पाकर फले-फूलेगा इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता।




यह लेख 20 नवंबर 2003, को हिन्दुस्तान के सह पेज प्रतिबिम्ब में प्रकाशित हुई है।

Sunday 1 February 2009

मुद्दत-ए-मोहब्बत

मुहब्बत में आपकी
मुनब्बत किया
मुलकत पर
मुलकित हुए थे
यह जान...
मल़हक़ थे उस वक्त
मुलम्मा किया मेरी
मुहब्बत को
मुलहिम थे
मुरब्बी थे खुद ही
मुशर्रफ किया था मुझे
मुबाशरत जान मुदित हुए थे तुम।
मुद्दत-दराज हुई यह वाक्या
मुब्तला-ए-बला हूं आज
मुरतकिब कहा जाता हूं
मसलन मुरतिद हो गया हूं
मुशाहरा की तरह भी अब
मुहब्बत नहीं आती
मुदम्मिग महमहा मुहतरमा की।

बरसों बाद देखा...

तुम्हें बरसों बाद देखा
जैसे आज फिर पहली बार देखा
और ठगा रह गया

एक दूसरे का खूब-खूब स्पर्श करती
आतुर ऑखों ने कोसा आंधियों को
किसे समझाए, कितना कुछ उखड़ गया है
इस बीच...
एक भी ठहराव नहीं है दूर तक
जिसकी घनी छाव में जा बैठते हम
खूबसूरत शहर के बीच इसी वक्त
और किसी को पता भी नहीं लग पाता
ओ, मेरी हृदय... मेरी आत्मा!

यहां ज़ख्मों की तरह खुलती हैं
अर्जित गोपनीयताएं सबके सामने

कहां सहेजकर रखूं इन लम्हों को
जिनमें हम दो शापग्रस्त लहरों की तरह
खड़े हैं आमने-समने
और एक-दूसरे से न ही कर पाते हैं गुफ्तगू
न ही मिल पाती है गर्म सांसे
मुझे कभी यह भी लगता है
कि हम खड़े है बंजर तन्हाईयों के बीच
फर्ज कि राष्ट्रीय संग्रहालय में
अपने दिनों की संवेदनशील
मूर्तिशिल्पों की तरह

तुम्हें बरसों बाद देखा
अधजले झोपड़ियों के धुंए और
अधटूटे मकानों के दबी चीखों से निकलकर
एक जाति संहार के पर्व पर
यहां अचानक!

अपनी ही सड़कों पर
हम पर भी कसी फब्तियां
समय की टेढ़ी आंख ने
चुना हमें ही
शिकवा था मुझसे ही
कहा था उस वक्त
नज़र लगे न कहीं
उनके दस्त-ओ-बाजू को
यह लोग क्यों मिरे
ज़ख्म-ए-जिगर को
देखते हैं

नज़र में भर उसे
मेरे ज़ख्म भी मुस्कुराई थी
और तुम तो निकल परी थी
स्वर्ग के वस्त्र पहन कर
नई ठहराव की तलाश में
फिर तुम्हें पहली बार देखा
मंजिले-ए-तलाश में।

अच्छा है कि चल पड़ो...

जमीन के मुद्दे पर ग्वालिर से दिल्ली तक 25000 आदिवासी एकजुट होकर करीब 350 किमी. की जनादेश पदयात्रा 2007, के दौरान पदयात्रा के नायक पी. वी. राजगोपाल से आगरा में हुई बातचीत का कुछ अंश –


जमीन के सवाल पर सरकार की भूमिका क्या रही है?
यही है कि आजादी मिलने के दौरान सभी भमिहीनों को भूस्वीमी बनाने की बात की जा रही थी और आज साठ साल बाद बचे-खुचे छोटे भूस्वामियों को भी भूमिहीन बनाने की कार्रवाई की जा रही है। यानी साठ साल में एकदम उलटा हो गया है। अपने देश के संविधान में भी भूमिहीनों को जमीन देने की बात कही गई है, पर अब इस पर कोई बात नही करता। राजनीतिक पार्टियां भी पहले अपने घोषणापत्र में भूमिहीनों को जमीन दिलाने का वादा करती थीं। अब वे भी इससे मुकर रही है। सरकार और राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकताएं बदल गई है।

जमीन को लेकर सरकार और राजनीतिक पार्टियों का रवैया बदलने का क्या नतीजा सामने आया है?
यही कि आज देश के डेढ़ सौ से अधिक जिले नक्सली हिंसा की चपेट में आ गए हैं। सरकार अगर बहुत दिनों तक वंचितों को नजरअंदाज करती रहेगी तो वे या तो आत्महत्या करेंगे या दूसरों की हत्या करेंगे। हम सरकार से लगातार कह रहे कि वह पूरी निष्ठा के साथ वंचितों की समस्या के समाधान के लिए आगे आए। समाज को हिंसा की ओर न धकेले। हिंसा से मुक्ति का रास्ता हमें गांधी ने दिखाया है। हम उनके कहे पर विनम्रता से अमल करने की कोशिश कर रहे हैं। गांधी ने भी चेतावनी दी थी कि अगर विषमता लगातार बढ़ती जाएगी तो अहिंसा को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा। जब तक विषमता मिटाने के लिए पहल नहीं की जाएगी तब तक गांधी जयंती को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का कोई मतलब नहीं होगा।

फिर ऐसे में आपका क्या प्रयास चल रही है?
पिछले तीन सालों में सत्ता में शामिल नेताओं-मंत्रियों से बात कर रहे हैं। विपक्षी नेताओं से भी बात कर रहे हैं। भूमिहीनों को जमीन देने के सवाल पर सभी सैद्धांतिक रूप से सहमत हो जाते हैं, लेकिन सिर्फ सैद्धांतिक सहमति से गरीबों का भला नहीं होगा। हम आश्वासन मात्र से खुश नहीं होने वाले, हम तत्काल कार्रवाई चाहते हैं। राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू जनजाति आयोग के अध्यक्ष बालकृष्ण रेंके ने न्यूनतम लैंड होल्डिंग की सिफारिश की है। यानी हरेक के पास कुछ न कुछ जमीन होनी चाहिए, लेकिन यह भी तय होना चाहिए कि हरेक के पास कितनी जमीन हो। हम सरकार के सामने इस बात को भी रखते आ रहे हैं।

जनादेश पदयात्रा की तैयारी आपने कैसे की?
यह एक ऐतिहासिक घटना है। हम कई वर्षों से युवाओं को तैयार कर रहे थे समाज की दुर्व्यवस्था को सुधारने के लिए। दुर्व्यवस्था सुधारने का मतलब है कि गांव-गांव में जाओ और वंचित जनता की मदद करे। उनके अधिकारों के लिए लड़ो। ऐसे काम करते-करते देश भर में जो फैलाव हुआ, उसी आधार पर युवा लोग तैयार हुए और गांव-गांव में संगठन बने। यह मेरी तीस वर्षों की तैयारी है। इस पदयात्रा में शामिल ज्यादातर लोग वही हैं, जो पहले की कई पदयात्राओं में शामिल हुए हैं। हम जनादेश पदयात्रा के पहले कई छोटी-बड़ी पदयात्राओं के लिए सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करते रहे हैं, ताकि वे वंचितों के हक में काम करें। अब स्थिति यह हो गई है कि वंचितों के हित में काम करना क्रांतिकारियों का काम नहीं रह गया है, केंद्र सरकार भी इस काम से बच रही है।
पिछले दिनों सरकार ने जो नीतियां बनाई हैं उससे वंचित और भी वंचित होते जा रहे हैं। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी वह भूमि अधिग्रहण में चली गई। जिनके पास थोड़ा बहुत जीने का साधने था, वह जंगल अधिग्रहण में चला गया। बहुतों की जमीन वन्यप्राणियों के अभयारण्य में चली गई। इस तरह लोग उजड़ते गए और एकता परिषद का संगठन मजबूत होता चला गया।

जनादेश पदयात्री कितने उत्साहित हैं?
बहुत उत्साहित हैं। वे इतने दिनों से जो पीड़ा सह रहे हैं, उसे अब वयक्त करना चाहते हैं कि अब बहुत हो गया, इससे ज्यादा हम सहन नहीं करेंगे। अब वे नंगे पैर गर्म सड़क पर भी चलने के लिए तैयार हैं। चलते हुए कईयों के पैरों में फफोले पड़ गए। पदयात्रा में बहुत से ऐसे वंचित भी शामिल हैं जिनके पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं। सर्दी इतनी पड़ी कि लोग रात में ठिठुरते रहे पर वे दिल्ली तक यात्रा में शामिल रहे। उन पदयात्रियों के साथ इतने धोखे हुए हैं कि वे यह सब सहने के लिए तैयार है, उन्हें लगता है कि बैठे रहने से कोई नेता आकर उनकी समस्या का समाधान नहीं कर देगा। तब उन्होंने निर्णय लिया कि नेताओं के इंतजार में बैठ कर वक्त बर्बाद नहीं करना है। इससे अच्छा है कि चल पड़ो। हम चल पड़े हैं। अब जिनको बात करनी है वे आएं हमारे पास। हम नेताओं-मंत्रियों के इंतजार में नहीं बैठे रहेंगे।

पदयात्रा शुरू होने के बाद समाज के लोगों से कैसी मदद मिल रही है?
जबरदस्त मदद मिली है। ग्वालियर से जब यात्रा निकली तो पहले पड़ाव पर एक ही व्यक्ति ने पचीस हजार लोगों को खाना खिला दिया। और जगह-जगह, गांव और शहर के लोगों पदयात्रियों पर फूल बरसा रहे हैं। मालाओं की तो बौछार है। बच्चे एक-एक किलोमीटर तक लाइन लगा कर एक-एक रुपया मदद देने के लिए तैयार हुए। गांव में किसान पदयात्रियों को पानी पिलाने के लिए होड़ कर रहे थे कि हम देंगे कि हम देंगे। हर पड़ाव पर लोग बिस्कुट, चावल, दाल, कंबल, चप्पल लेकर आ रहे थे।
यह सब देख कर अंदाज नहीं लगता कि लोग किस हद तक हमलोगों की मदद करना चाहते हैं। चंबल की भूमि हो या ब्रज का क्षेत्र हो, हर जगह लोगों में हमारी मदद करने का उत्साह देखने को मिला। कहा जाए कि मदद का उत्साह व्यापक है। लोग दल से ऊपर उठ कर आ रहे हैं- चाहे वे कांग्रेस के हों या भापजा या अन्य पार्टी के।

यह साक्षात्कार 28 अक्टूबर, 2007 को जनसत्ता ‘रविवारी’ में प्रकाशित हुई है।

Friday 30 January 2009

प्यार किया नहीं जाता… हो जाता है!

साइंस ऑफ लव

ऐसा क्या होता है जब एक लम्हें में भूख खत्म हो जाती है, चैन चला जाता है, दिल कहीं लगता नहीं, दिमाग कुछ और सोचता नहीं। क्या कोई गंध होती है जिसे वयक्ति पहचान लेता है या कोई तरंग होती है जो अचानक आपको किसी का दोस्त बना देती है? चाहत ऐसी जो किसी हद तक जाने को मजबूर कर देती है। विज्ञान को इस बात की शरू से ही तलाश रही है कि वह क्या चीज है जो व्यक्ति को हर कुछ कर गुजरने पर मजबूर कर देती है। किसी की खातिर मर-मिटने और सारी परंपराएं-मर्यादाएं तोड़ने को बाध्य कर देती है। आखिर वे क्या कारण है? लोग पीड़ा, जुदाई और बदनामी के बाद भी इश्क की धुन में गुम रहते हैं। इक नज़र में दीवाना बन जाते हैं। यहां तक कि प्रेम के शोध में जुटे वैज्ञानिक भी इसे सही मानते हैं कि प्रेम किसी से भी कहीं भी, कभी भी हो सकता है। ‘द बॉयलॉजी ऑफ लव’ किताब के लेखक डा. जेनव कहते हैं कि मनुष्य एक विचारशील जीव से पहले एक संवेदनशील जीव है, इसलिए प्रेम जैसी भावना की कमी से व्यक्ति के विकास और जीने की क्षमता भी प्रभावित होती है। उदाहरणस्वरूप जिन बच्चों को बचपन से ही प्यार कम मिलता है उसका दिमाग सामान्य बच्चों से अलग होता है। उनमें तनाव से जुड़े हार्मोन अधिक पाए जाते हैं। इसलिए ऐसे बच्चे अधिक दुःखी रहते हैं। धीरे-धीरे वे आपराधिक प्रवृति की ओर अग्रसर होने लगते हैं। वहीं कुछ लोग प्रेम को जीवन का अमूल्य वरदान मानते हैं और यहां तक कह बैठते हैं कि प्रेम बिन सारा जग सूना। प्रेम के गुत्थी को सुलझाते हुए वैज्ञानिकों ने दिमाग के उस भाग का पता लगाया जो रूमानी प्रेम में सक्रिय होता है। उन्होंने एक दिलचस्प बात बताई कि दिमाग का वह हिस्सा जो प्रेम के समय सक्रिय होता है। वह दिमाग के उस भाग से बिल्कुल अलग होता है जो अक्सर भावनात्मक स्थितियों जैसे गुस्से या आनंद के समय सक्रिय होता है। दरअसल प्यार में दिमाग का वह विशेष हिस्सा सक्रिय होता है, जो नशा सेवन के दौरान अजीब-सी अनुभूति का एहसास कराता है। वह प्यार में किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाता है। जब किसी को प्यार होता है तो उसके दिमाग में कुछ अलग ही चल रहा होता है और वह सामान्य से कुछ अलग हो जाता है यानी पूरी तरह दीवाना। आमतौर पर प्यार के तीन रूप है... पहला वासना, दूसरा चाहत, तीसरा आसक्ति। वासना और चाहत तो समय के साथ खत्म हो जाते हैं लेकिन यही चाहत आसक्ति में बदल जाए तो फिर यह बंधन जिंदगी भर का हो जाता है। प्यार की एक कहावत माने तो कहा जाता है कि प्यार अंधा होता है। प्यार में पड़े व्यक्ति को अपने सामने वाले व्यक्ति में कोई भी कमी नहीं महसूस होता है।

फैरिस स्टेट यूनिवर्सिटी, मिशिगन के वैज्ञानिक रॉबर्ट फ्रेयर के अनुसार प्यार के पीछे मानव शरीर में उपस्थिति न्यूरोकैमिकल का हाथ होता है और यह न्यूरोकैमिकल फिनाइल इथाइल अमीन है। यह कैमिकल अपने प्रेमी या प्रेमिका की खामियों को नजरअंदाज कर प्रेम में डूबी खुशियों का अहसास कराता है। ऐसे वक्त प्रेमी या प्रेमिका की छोटी-छोटी बातें भी दिल को दीवाना कर देती हैं। यहां तक कि अगर प्रेमी या प्रेमिका झूठ भी बोले तो भी यकीन नहीं होता।

मनोवैज्ञानिक का माने तो प्यार में भावनाओं और संवेदनाओं के साथ कुछ और चीजों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह है आंख। ‘नैन मटकबे तो जिया जलबे करी’ गीत प्रेम में आंख की महत्ता की एक रोमांचक मोड़ पर खड़ी कर देती है। प्यार आंख से शूरू होकर जीवन भर का बंधन बन जाता है। आंखों का प्यार आखिर जीवन भर का बंधन कैसे बन जाता है? शोध वैज्ञानिक कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति का आंखों का जादू नब्बे सेकेंड से चार मिनट में चल जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति के भावनाओं और इच्छाओं का आकलन कर लेता है। धीरे-धीरे दिल में उस व्यक्ति के लिए जगह में बन जाती है। प्यार का इजहार करने में सांसों की खुशबू का योगदान कम नहीं है। हर व्यक्ति में एक गंध पाई जाती है जो नाक के जरिए दिमाग तक पहुंचती है। दिमाग इस गंध को डीकोड करता है और उस विशेष व्यक्ति के जींस के बारे में पता करता है। इन जींस की बनावट को जानकर हमारा मस्तिक यह तय करता है कि वह व्यक्ति हमारा साथी बनने लायक है या नहीं। लिहाजा यदि आप सच्चे साथी की खोज में हैं तो अपनी के साथ-साथ नाक पर भी भरोसा कर सही निर्णय तक पहुंच सकते हैं। किसी भी व्यक्ति के प्रति आकर्षण का जादू चलते वक्त पचपन फीसद योगदान हावभाव, अड़तीस फीसद बातचीत, सात फीसद ज्ञानलुक और भाषा की होती है।

प्रो. आर्थर कहते हैं कि प्रेम में आपका आकर्षण होना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि सौम्यता और बुद्धि। जाहिर है कि प्रेम सिर्फ प्रेम है, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। इसे किसी रिश्ते में नहीं बांधा जा सकता है। यह हमारे भीतर से आता है। मालूम नहीं होता... जाने कैसे, कब, कहां, इकरार हो जाता है, हम सोचते ही रह जाते हैं और प्यार हो जाता है।

Friday 23 January 2009

पहचान पत्र

“दिल्ली को हर तरफ से छू कर देखना चाहता हूं, मगर मेरे पास कोई पहचान पत्र नहीं है जिससे मेरी पहचान हो सके कि मैं इस देश का एक छोटे-से गांव का लड़का हूं।” इतना कहते ही बीस साल के जाकिर हुसैन का चेहरा अचानक किसी भय को भॉपकर सावधान हो जाता है और सहमे नज़र से इधर-उधर देखने लगता है। कुछ देर बाद सहज होकर जाकिर कहता है, ‘पिछले दो महीने पहले दिल्ली में आया था बड़ा अधिकारी बनने के लिए यूपीएससी की तैयारी करने। लेकिन यहां देखा कि मुंबई में चरमपंथियों के हमले के मद्देनज़र अवैधरूप से रह रहे पाकिस्तानी और बंग्लादेशी खासकर मुस्लिम नागरिकों की जाँच-पड़ताल चल रही है। तो इस डर से कि बाहर निकलने पर पुलिसिया पूछताछ में घबड़ा जाने पर पकड़ लिया जाऊं। इस कारण अपने गांव के छः दोस्तों के साथ उनके एक कमरे में रह रहा हूं। फिर एक परिचित के सहारे एक मैगजिन में ऑफिस सहायक के रूप में काम पर लग गया हूं। मैगजीन के संपादक जी ने कहा है कि मैगजीन का एक पहचान पत्र बना दूंगा। उसके बाद मैं दिल्ली को देखने जाऊंगा। तबतक इंतजार करूंगा।’

जाकिर और जाकिर जैसे देश के कई लोगों के पास किसी तरह का पहचान पत्र न रहना इत्तिफाक ही होता है। क्योंकि जब उसके इलाके में पहचान पत्र बनाई जाती है तब वह दूसरे नगरों में रोजगार कर रहा होता है। अगर अपने इलाके में रहता भी है तो उसके नाम पहचान पत्र बनाने वाले के सूची में नहीं होता है।
इस तरह सैंकड़ों जाकिर इस जमीन पर अस्तित्व में आने के बावजूद अपनी पहचान पत्र न होने या बनने के इंतजार में इस बड़ी सी खूबसूरत दुनिया के छोटे से कोने में खुद को सिकोड़ कर बैठा रहता है।
दूसरी तरफ अनगिनत ऐसे दहशतगढ़ हैं जो भारतीय पहचान पत्र बनाकर हमारे देश के कई इलाकों में आतंक का ताण्डव कर रहा है। इसी का नजारा है हाल में दिल्ली में पकड़ा गया पाकिस्तानी नागरिक आफताब उर्फ अलीखान। जो दिल्ली विधान सभा चुनाव में सीमापुरी क्षेत्र में कांग्रेसी उम्मीदवार के लिए पोलिंग एजेण्ट के तौर पर काम कर रहा था। गौरतलब है कि वह पिछले तीन साल से हमारे देश में रह रहा है और दिल्ली चुनाव में मतदान भी किया है। उसके पास से दिल्ली राज्य के कांग्रेस विधायक वीर सिंह धिंगान का कार्यकर्ता पहचान पत्र, देहरादून का ड्राईविंग लाईसेंस, स्वयं सहायता समूह का परिचय पत्र, पाकिस्तानी पासपोर्ट का फोटो कॉपी पाई गई। साथ ही दिल्ली के वोटर लिस्ट में अफताब का नाम भी है।
अब सवाल यह रह जाता है कि इन सबका जिम्मेदार कौन है? कहां हुई है चूक?
इसके जवाब के लिए हम जनता और सरकार को ईमानदारी से अपने अंदर झांकने का समय सामने आ गया है।
चूंकि आतंकवाद पर देश के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में राजस्थान के मुख्यमंत्री ने आतंकवाद से निपटने के लिए पूरे देश में फोटो पहचान पत्र बनाने की बात कही है। इसलिए फोटो पहचान पत्र बनाने की प्रक्रिया पर भी नज़र डालना होगा। जिसे बिल्कुल पाक-साफ नहीं कहा जा सकता। फोटो पहचान पत्र बनाने के लिए जिला मजिस्ट्रेट ब्लॉक के अधिकारियों को मतदाता सूची बनाने का निर्देश जारी करता है जिसे ब्लॉक के अधिकारी ग्राम पंचायत या सरकारी विद्यालय के शिक्षकों को गांव-मुहल्लों में जाकर नागरिकों की सूची तैयार करने के लिए कहता है। लेकिन पंचायत और शिक्षक घर-घर न जाकर वे क्षेत्र के राजनीतिक कार्यकर्ता या दबंग लोगों से मशविरा कर मतदाता सूची तैयार कर लेता है। ये राजनैतिक कार्यकर्ता अपने पार्टी के ज्यादा से ज्यादा सदस्य और वोटर बनाने के लोभ में पसंद के लोग और रिश्तेदारों को एक से अधिक बार नाम बदल कर सूची तैयार करवाता है। फोटो खिंचवाते समय आसपास के पहचान के लोगों का बारी-बारी से सूची में नामानुसार फोटो बनवाया जाता है। कई इलाकों में जाति और धर्म विशेष के लोग निम्न वर्ग के लोगों को दबाकर उनके नाम पर अपने लोगों का पहचान पत्र बनवाते है और अपने चुनिंदा राजनीतिक पार्टी के वोट बढ़ाने के लिए वोटर बैंक तैयार रखते हैं।
इस तरह के भ्रष्टाचार हमारे देश में बहुत ही सरलता से बढ़ रही है। मजे की बात है कि जिनकी पहचान शक के घेरे में है उनका भारतीय पहचान पत्र जल्द बन जाता है। वहीं आम नगरिकों को अपने ही देश में पहचान पत्र बनाने के लिए काफी जद्दोजहद करना पड़ता है। लोकतंत्र में समाज के नीचले स्तर पर हो रहे इस तरह के कृत के कारण पूरा देश आज गंभीर संकट से गुजरने पर आमदा है।
देश के राजनीतिक पार्टियों के इस तरह के हरकत से झगड़ालू पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ-साथ अब बंग्लादेश के नागरिकों का भारत में पहचान पत्र आसानी से बनने का संगीन मामला सामने आ चुकी है। एक सूचना के मुताबिक बंग्लादेश के नागरिकों का बंगाल और बिहार में ऐसा नेटवर्क है कि उनके भारत के सीमा में प्रेवश से पहले ही उनकी पहचान पत्र बन कर तैयार रहता है।

नतीजतन सैकड़ों विदेशी इंटेलीजेंस के लोग हमारे देश में आजादी के बाद से ही गढ़ बनाए हुए हैं। जिनकी घिनौनी हरकत की झलक आय दिन नज़र आती है। इसलिए आतंकवादी विरोधी तैयारी के अंतर्गत देश के प्रत्येक नागरिकों का फोटो पहचान पत्र अति आवश्यक है। लेकिन पहचान पत्र बनाने की प्रक्रिया में व्याप्त भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के बाद ही आतंकवादियों के नेटवर्क को पता लगाने में सफलता मिलेगी।
तब, जाहिर है कि देश का हर जाकिर अपने सपने को साकार करेगा और फोटो पहचान पत्र लेकर अपने खूबसूरत देश को हर तरफ से देखकर गर्व से कहेगा मैं भारत का नागरिक हूं।