जमीन के मुद्दे पर ग्वालिर से दिल्ली तक 25000 आदिवासी एकजुट होकर करीब 350 किमी. की जनादेश पदयात्रा 2007, के दौरान पदयात्रा के नायक पी. वी. राजगोपाल से आगरा में हुई बातचीत का कुछ अंश –
जमीन के सवाल पर सरकार की भूमिका क्या रही है?
यही है कि आजादी मिलने के दौरान सभी भमिहीनों को भूस्वीमी बनाने की बात की जा रही थी और आज साठ साल बाद बचे-खुचे छोटे भूस्वामियों को भी भूमिहीन बनाने की कार्रवाई की जा रही है। यानी साठ साल में एकदम उलटा हो गया है। अपने देश के संविधान में भी भूमिहीनों को जमीन देने की बात कही गई है, पर अब इस पर कोई बात नही करता। राजनीतिक पार्टियां भी पहले अपने घोषणापत्र में भूमिहीनों को जमीन दिलाने का वादा करती थीं। अब वे भी इससे मुकर रही है। सरकार और राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकताएं बदल गई है।
जमीन को लेकर सरकार और राजनीतिक पार्टियों का रवैया बदलने का क्या नतीजा सामने आया है?
यही कि आज देश के डेढ़ सौ से अधिक जिले नक्सली हिंसा की चपेट में आ गए हैं। सरकार अगर बहुत दिनों तक वंचितों को नजरअंदाज करती रहेगी तो वे या तो आत्महत्या करेंगे या दूसरों की हत्या करेंगे। हम सरकार से लगातार कह रहे कि वह पूरी निष्ठा के साथ वंचितों की समस्या के समाधान के लिए आगे आए। समाज को हिंसा की ओर न धकेले। हिंसा से मुक्ति का रास्ता हमें गांधी ने दिखाया है। हम उनके कहे पर विनम्रता से अमल करने की कोशिश कर रहे हैं। गांधी ने भी चेतावनी दी थी कि अगर विषमता लगातार बढ़ती जाएगी तो अहिंसा को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा। जब तक विषमता मिटाने के लिए पहल नहीं की जाएगी तब तक गांधी जयंती को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का कोई मतलब नहीं होगा।
फिर ऐसे में आपका क्या प्रयास चल रही है?
पिछले तीन सालों में सत्ता में शामिल नेताओं-मंत्रियों से बात कर रहे हैं। विपक्षी नेताओं से भी बात कर रहे हैं। भूमिहीनों को जमीन देने के सवाल पर सभी सैद्धांतिक रूप से सहमत हो जाते हैं, लेकिन सिर्फ सैद्धांतिक सहमति से गरीबों का भला नहीं होगा। हम आश्वासन मात्र से खुश नहीं होने वाले, हम तत्काल कार्रवाई चाहते हैं। राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू जनजाति आयोग के अध्यक्ष बालकृष्ण रेंके ने न्यूनतम लैंड होल्डिंग की सिफारिश की है। यानी हरेक के पास कुछ न कुछ जमीन होनी चाहिए, लेकिन यह भी तय होना चाहिए कि हरेक के पास कितनी जमीन हो। हम सरकार के सामने इस बात को भी रखते आ रहे हैं।
जनादेश पदयात्रा की तैयारी आपने कैसे की?
यह एक ऐतिहासिक घटना है। हम कई वर्षों से युवाओं को तैयार कर रहे थे समाज की दुर्व्यवस्था को सुधारने के लिए। दुर्व्यवस्था सुधारने का मतलब है कि गांव-गांव में जाओ और वंचित जनता की मदद करे। उनके अधिकारों के लिए लड़ो। ऐसे काम करते-करते देश भर में जो फैलाव हुआ, उसी आधार पर युवा लोग तैयार हुए और गांव-गांव में संगठन बने। यह मेरी तीस वर्षों की तैयारी है। इस पदयात्रा में शामिल ज्यादातर लोग वही हैं, जो पहले की कई पदयात्राओं में शामिल हुए हैं। हम जनादेश पदयात्रा के पहले कई छोटी-बड़ी पदयात्राओं के लिए सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करते रहे हैं, ताकि वे वंचितों के हक में काम करें। अब स्थिति यह हो गई है कि वंचितों के हित में काम करना क्रांतिकारियों का काम नहीं रह गया है, केंद्र सरकार भी इस काम से बच रही है।
पिछले दिनों सरकार ने जो नीतियां बनाई हैं उससे वंचित और भी वंचित होते जा रहे हैं। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी वह भूमि अधिग्रहण में चली गई। जिनके पास थोड़ा बहुत जीने का साधने था, वह जंगल अधिग्रहण में चला गया। बहुतों की जमीन वन्यप्राणियों के अभयारण्य में चली गई। इस तरह लोग उजड़ते गए और एकता परिषद का संगठन मजबूत होता चला गया।
जनादेश पदयात्री कितने उत्साहित हैं?
बहुत उत्साहित हैं। वे इतने दिनों से जो पीड़ा सह रहे हैं, उसे अब वयक्त करना चाहते हैं कि अब बहुत हो गया, इससे ज्यादा हम सहन नहीं करेंगे। अब वे नंगे पैर गर्म सड़क पर भी चलने के लिए तैयार हैं। चलते हुए कईयों के पैरों में फफोले पड़ गए। पदयात्रा में बहुत से ऐसे वंचित भी शामिल हैं जिनके पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं। सर्दी इतनी पड़ी कि लोग रात में ठिठुरते रहे पर वे दिल्ली तक यात्रा में शामिल रहे। उन पदयात्रियों के साथ इतने धोखे हुए हैं कि वे यह सब सहने के लिए तैयार है, उन्हें लगता है कि बैठे रहने से कोई नेता आकर उनकी समस्या का समाधान नहीं कर देगा। तब उन्होंने निर्णय लिया कि नेताओं के इंतजार में बैठ कर वक्त बर्बाद नहीं करना है। इससे अच्छा है कि चल पड़ो। हम चल पड़े हैं। अब जिनको बात करनी है वे आएं हमारे पास। हम नेताओं-मंत्रियों के इंतजार में नहीं बैठे रहेंगे।
पदयात्रा शुरू होने के बाद समाज के लोगों से कैसी मदद मिल रही है?
जबरदस्त मदद मिली है। ग्वालियर से जब यात्रा निकली तो पहले पड़ाव पर एक ही व्यक्ति ने पचीस हजार लोगों को खाना खिला दिया। और जगह-जगह, गांव और शहर के लोगों पदयात्रियों पर फूल बरसा रहे हैं। मालाओं की तो बौछार है। बच्चे एक-एक किलोमीटर तक लाइन लगा कर एक-एक रुपया मदद देने के लिए तैयार हुए। गांव में किसान पदयात्रियों को पानी पिलाने के लिए होड़ कर रहे थे कि हम देंगे कि हम देंगे। हर पड़ाव पर लोग बिस्कुट, चावल, दाल, कंबल, चप्पल लेकर आ रहे थे।
यह सब देख कर अंदाज नहीं लगता कि लोग किस हद तक हमलोगों की मदद करना चाहते हैं। चंबल की भूमि हो या ब्रज का क्षेत्र हो, हर जगह लोगों में हमारी मदद करने का उत्साह देखने को मिला। कहा जाए कि मदद का उत्साह व्यापक है। लोग दल से ऊपर उठ कर आ रहे हैं- चाहे वे कांग्रेस के हों या भापजा या अन्य पार्टी के।
यह साक्षात्कार 28 अक्टूबर, 2007 को जनसत्ता ‘रविवारी’ में प्रकाशित हुई है।
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