Sunday, 1 February 2009

बरसों बाद देखा...

तुम्हें बरसों बाद देखा
जैसे आज फिर पहली बार देखा
और ठगा रह गया

एक दूसरे का खूब-खूब स्पर्श करती
आतुर ऑखों ने कोसा आंधियों को
किसे समझाए, कितना कुछ उखड़ गया है
इस बीच...
एक भी ठहराव नहीं है दूर तक
जिसकी घनी छाव में जा बैठते हम
खूबसूरत शहर के बीच इसी वक्त
और किसी को पता भी नहीं लग पाता
ओ, मेरी हृदय... मेरी आत्मा!

यहां ज़ख्मों की तरह खुलती हैं
अर्जित गोपनीयताएं सबके सामने

कहां सहेजकर रखूं इन लम्हों को
जिनमें हम दो शापग्रस्त लहरों की तरह
खड़े हैं आमने-समने
और एक-दूसरे से न ही कर पाते हैं गुफ्तगू
न ही मिल पाती है गर्म सांसे
मुझे कभी यह भी लगता है
कि हम खड़े है बंजर तन्हाईयों के बीच
फर्ज कि राष्ट्रीय संग्रहालय में
अपने दिनों की संवेदनशील
मूर्तिशिल्पों की तरह

तुम्हें बरसों बाद देखा
अधजले झोपड़ियों के धुंए और
अधटूटे मकानों के दबी चीखों से निकलकर
एक जाति संहार के पर्व पर
यहां अचानक!

अपनी ही सड़कों पर
हम पर भी कसी फब्तियां
समय की टेढ़ी आंख ने
चुना हमें ही
शिकवा था मुझसे ही
कहा था उस वक्त
नज़र लगे न कहीं
उनके दस्त-ओ-बाजू को
यह लोग क्यों मिरे
ज़ख्म-ए-जिगर को
देखते हैं

नज़र में भर उसे
मेरे ज़ख्म भी मुस्कुराई थी
और तुम तो निकल परी थी
स्वर्ग के वस्त्र पहन कर
नई ठहराव की तलाश में
फिर तुम्हें पहली बार देखा
मंजिले-ए-तलाश में।

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