पत्रकारिता खो गई... पत्रकारिता खो गई...
देखने में है आदर्श, समाज का है लोचन
खो गई...
इस तरह के गीत गाकर शाहरूख खान फिल्म ‘चलते-चलते’ में अपनी प्रेमिका को खोजता है। पर आज हम अपने लोकतंत्र में पत्रकारिता की तलाश कर रहे है।
भारत के आजादी के बाद स्वतंत्र लोकतंत्र का चौथी सत्ता नए अंदाज में सामने आया। समय के विकास के साथ-साथ मीडिया निखरने लगा और नवरंग चढ़ने लगा। तब किसी ने पुचकारा-दुलारा-सराहा तो कहीं आलोचनाओं का सबब बना। देश में आपातकाल के दौरान इसके पंख कतर दिए गए। लेकिन बाद मे मीडिया को स्वतत्र छोड़ दिया गया। फिर नए रूप में पंख आ गए और हर तरफ उड़ने की आजादी मिल गई।
अब पिछले एक दशक से इसमें नया आयाम जुड़ा है- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। इस मीडिया ने हर घर के डायनिंग रूम में बैठकर लोगों से खूब तारिफे बटोरी और थोडे़ दिन बाद अपनी लोकप्रियता को देखते हुए रूतवे के साथ-साथ नजरिए में ध्वनि गति से बदलाव कर डाला। अब मीडिया के इस नए आयाम का मुख्य काम समाज और सरकार पर नजर न रखकर टीआरपी और धन के आगमन के स्त्रोतों का ख्याल करना है।
इसके पर्दे पर फिल्मकारिता, खेलकारिता, व्यवसायकारिता, सीरियल और ठहाकेकारिता होता है। इन विषयों पर यहां पैकेज बनते हैं, प्रोग्राम बनते हैं जो इस मीडिया का एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग न्यूज कहलाता है। ऐसे खबरों से टीवी चैनलों के संपादक अपने को सबसे पहले और सबसे आगे होने का दम-खम दिखाते है। लेकिन असहायों, दलितों, मजदूरों, किसानों और शोषितों की ताकत और आवाज कहलाने वाली इस मीडिया में अब इनके लिए तनिक जगह भी शेष नहीं है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस तरह के प्रसारणों को इन दिनों के कुछ लोग इसकी बालावस्था कहते हैं? किन्तु दुनिया के सबसे बड़े तंत्र का हिस्सा बचपना की आड़ में सामाजिक जिम्मेदारियां से पीछे नहीं मुड़ सकती है। लोगों के बीच आवाज उठने लगी है कि सामाजिक स्वतंत्रता और जनता की अभिव्यक्ति के नाम पर मीडिया काम करती है, वह तो कहीं नजर नहीं आता है। इस मीडिया में विजुअलाइजेथन और प्रेजेन्टेशन की वह योग्यता नहीं है जो, संचार के दृश्य-श्रव्य माध्यम के लिए जरूरी होती है।
पिछले दिनों दिल्ली में चरमपंथियों द्वारा बम धमाके के प्रस्तुतीकरण और उसके कंटेंट को लेकर देश के एक प्रतिष्ठित समाचार चैनल के दो बड़े अधिकारी आपस में बहस करते और कम्प्यूटर के की-बोर्ड पटकते देखे गए। उनमें बहस छिड़ी थी कि उक्त सनसनी को प्रस्तुत कैसे किया जाए। स्टूडियो में एंकर बैठाकर घटनास्थल से संवाददाता का लाईव किया जाए या क्रिकेट मैच की तरह फूटेज दिखा बैकग्राउंड से एंकर की ऑडियो चलाकर प्रस्तुत किया जाए। दो घण्टे तक उठापटक चलती रही और खूनी ताण्डव के तस्वीरे लाईव जाते रहे। बाद में किसी तरह बला टला। लेकिन किसी अधिकारी ने यह जरूरत महसूस नहीं किया कि इस घटना से जुड़े कारण और राहत कार्य से संबंधित सरकारी अधिकारी से बातचीत किया जाए या धटनास्थल से मात्र चार-पांच किलोमीटर पर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और संबंधित मंत्रियों के आवास पर जाकर घटना के कारण का जवाब तलब किया जाए।
जनमानस की शिकायत है कि समाचार चैनलों पर राजनैतिक रैलियों के भाषण की तरह एक बात को बार-बार कहकर और जुलूस के झंडों की भॉति एक शॉट को बार-बार घुमाकर दर्शकों के सामने जुलूस निकालने को पत्रकारिता की अत्याधुनिक तकनीक की संज्ञा दी जा रही है। शायद इस विधा से जुड़े संपादक मण्डली भूल गई है कि जिस मंच पर काम कर रहे है वह पत्रकारिता का मंच है, देश की चौथी सत्ता है। टीआरपीकारिता के चकाचौंध में कौन से मंच पर क्या करना चाहिए। इस शिष्टाचार को नजरअंदाज किया जा रहा है या मालूम नहीं है? इसका जवाव मीडिया के कर्ताधर्ता ही पत्रकारिता के तराजू पर खुद को तौलकर बता सकते हैं?
भारतीय लोकतंत्र में मीडिया को चौथी सत्ता कहा गया है। इसलिए पूंजीपतियों और मीडिया मालिकों से अपेक्षा करते हैं कि आप विदेशी मीडिया के मुकाबले अपने व्यवसाय को उन्नत कीजिए, स्वयं धन और यश कमाईए। परन्तु यह न भूल जाए कि टीआरपी और धन आपके खबरों में जनता की दिलचस्पी से बनता है। आपकी सच्ची सहायता उन लोगों से आती है, जो आपके खरीददार हैं, जो मर-खपकर आपका खबर बनाते हैं। बुद्धि के एरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो प्रयास हो रहा है अथवा ऐसे प्रयास से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे कतई पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता है। यह भारतीय मीडिया का कौन-सा पथ है? आजतक यही उम्मीद रही है कि हम चालबाजियों और दांव-घातों स देश को विकसित कर लें। इसके लिए हमारे यहा के बड़े-बड़े दिमागों ने खूब राजनीतिक चालें चलीं और वे देशहित चिंतक भी कहलाते रहे और शासकों के विश्वासपात्र भी। किन्तु उनमें सम्पूर्ण प्रयत्नों के रहते हुए भी आजादी के 61वें साल बाद भी देश में विकास के नाम पर आशा और निराशा के मंजर दिखने लगा है। इसके बावजूद मीडिया पर खेलने और नाचने-गाने का विनोद सवार है। उसे नहीं सूझता कि देश की जनता के शरीर पर चीथड़ा, पेट में टुकड़ा और सिर पर खपड़ा नहीं है। ऐसी ही परिस्थिति में गोखले जी के मुंह से निकला था, भारत के भाग्य में निराशाओं में काम करना बदा है, अपार काम सामने है और काम करने वालों का टोटा है।
पत्रकारिता के लिहाज से यदि भारतीय मीडिया ने देश के उस समूह की भी ख्याल की होती जो बेपढ़ा कहलता है और जो सौ में सत्तर है, निराशा में भी उनको आशा का संदेश दिया होता, तो जिन वस्तुओं की प्राप्ति मीडिया चाहता है, उसे प्राप्त कर लिया होता। हमारे राष्ट्र में जो सज्जन कर्मण्य व कलमपकड़ समझे जाते है वो अपने शासक से सीखकर यह पथ पकड़ लिया है कि कहा जाए कुछ और किया जाए कुछ।
इस तरह के नाटक के सहारे ही हमने दो शताब्दी की गुलामी दिखाई और परिणाम देखा कि दुनिया में कोई चीज नहीं है जिसका मिसाल हम बन सकें। इसलिए जिन सज्जनों को यह ख्याल है कि वो धोखेबाजी से, कूटनीति से भारतीय मीडिया को विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा देंगे, वे न तो अब खुद ही धोखे में रहे और न देश को अधिक धोखा दें।
दर्शकों और पाठकों के दिल में रजने-बसने के लिए भारतीय मीडिया को वह धोखेबाजी नहीं चाहिए जो एक दशक गुजार कर भी आलोचना का शिकार बना दे। भारतीय मीडिया को उस कला की जरूरत है, जो जनता की ताकत और आवाज बने, चाहे कीमत कुछ भी चुकानी पड़े। किन्तु जिसका एक मात्र लक्ष्य हो पत्रकारिता। वह सब दे जो सदैव समय की मांग हो और जिसे देने के बाद विकसित भारत की पीढ़ियां अपने देश की पत्रकारिता पर गर्व कर सकें।
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