Tuesday, 24 February 2009

महिला हाट बने

"भारत सेवा संस्थान" के अध्यक्ष रेनाना झाबवाला से महिला कामगारों के विकास पर एक मुलाकातः

भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में महिला मजदूरों को हक दिलाने के लिए आए किस तरीके से सोचती हैं?
भूमंडलीकरण के बाद जमाना बहुत बदल गया है। इला बहन ने 1972 में सेवा संस्था शुरू की थी और मैं इससे 1977 में जुड़ी। उस समय सेवा बहुत ही छोटी-सी संस्था थी। हम लोग मजूर महाजन के दफ्तर में बैठते थे। तब समझा जाता था कि ये जो असंगठित क्षेत्र की महिलाएं हैं, जो कारखाने के बाहर काम करती हैं, आने वाले समय में संगठित हो जाएंगी। इनके लिए फैक्टरी बन जाएगी, वर्कशाप बन जाएंगे। लेकिन हम भ्रम में थे। सब कुछ उल्टा हुआ। कारखाने एक के बाद एक बंद होने लगे। असंगठित क्षेत्र बढ़ता चला गया। आज कारखानों में पुरूषों के साथ महिलाएं काम कर रही हैं। दुसरे कामगार ज्यादातर छोटे-मोटे स्वरोजगार में लगे हैं, क्योंकि नौकरियां कम होती जा रही हैं। ऐसे हालात में मजदूरों को कैसे संगठित करना है, इसे हमने पिछले पंद्रह सालों में सीख लिया है, इसलिए जो खेतों में काम करती हैं, जो घर में बैठ कर पापड़ या बीड़ी बनाती हैं, जो कैसे संगठित किया जाए। उनके लिए संगठन का मतलब क्या है, इसका अर्थ ‘सेवा’ से निकला है। उनका शोषण पहले से ज्यादा बढ़ा है। उन पर कई तरह बंदिशें हैं। जैसे सड़क किनारे जो कुछ बंचते हैं उनका तो कोई मालिक ही नहीं है, लेकिन उनका शोषण पुलिस और नगरपालिका वाले कर रहे हैं। गुंडे भी उन पर हावी रहते हैं। सरकार उन्हें अपना छोटा-सा धंधा करने के लिए थोड़ी-सी भी जगह नहीं देती है। ऐसे में वे सड़क के किनारे अपना धंधा करते हैं तो उसे गैरकानूनी करार दिया जाता है। और उनके धंधे का गैरकानूनी बता कर उन्हें तंग किया जाता है। ऐसे में उन्हें संगठित होना जरूरी लगता है। संगठित होकर ही वे पुलिस से, नगरपालिका के कर्मचारियों से और गुंड़ों से बचने का रास्ता निकाल सकती है।

ऐसे हालात में महिला मजदूरों को संगठित करने के तरीकों का क्या स्वरूप होगा?
आज के समय में एक नए तरह की ट्रेड यूनियन की जरूरत है, जिसे व्यावहारिक धरातल पर लाने की कोशिश सेवा कर रही है। सेवा की सबसे पहली कोशिश महिला मजदूरों को संगठित करने की है। उन्हें अपने हकों के लिए लड़ना है। लेकिन हक मालिक से नहीं, सरकार से मांगने हैं। यह काम केवल एक इलाके में ट्रेड यूनियन बना लेने से सिरे नहीं चढ़ेगा। इसके लिए सभी महिला मजदूरों को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर लोगों को जागरूक करना होगा। भूमंडलीकरण की वजह से पूंजी भी ग्लोबल हो गई है। लेकिन कामगार ग्लोबल नहीं हुए हैं। इसलिए पूंजी से मुकाबला करने के लिए अंतराष्ट्रीय होना पड़ेगा। यही काम सेवा संस्था अपने सदस्यों के बीच कर रही है।

महिला कामगारों को संगठित करने में क्या समस्याएं हैं?
महिलाओं का घर से बाहर निकलना मुश्किल है। कुछ महिलाएं मजदूरी के लिए घर से बाहर निकलती है, लेकिन कुछ काम भी आठ घंटे से ज्यादा करती हैं और घर से बाहर नहीं आना चाहती हैं। ऐसी महिलाएं पचास फीसद हैं जो बाहर आकर बैठक करने में संकोच करती हैं और सच्चाई यही है कि वे जब तक घर से बाहर बैठकें नहीं करेंगी तब तक उनका संगठन नहीं बनेगा। ये महिलाएं घर में पापड़, बीड़ी और अन्य चीजें बनाती हैं लेकिन पूछने पर वे जवाब देंगी वे कुछ नहीं करती हैं। वे अपनी पहचान बनाने के लिए आगे नहीं आना चाहती हैं। वे खुद को देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा ही नहीं समझती हैं। इन महिलाओं का विचार बदलना बहुत ही मुश्किल है।

महिला हाट की क्यों जरूरत है? इसकी क्या संभावना है?
जो वेंडर लोग हैं हमारे देश में, वे परंपरागत तौर से काम कर रहे हैं, लेकिन शहर के आधुनिकीकरण में इनकी कोई स्थान नहीं रहा। नगरपालिका या नगर निगम के जो कानून हैं वे ब्रिटिश कानूनों के आधार पर बने हैं। इन कानूनों के मुताबिक शहर की जमीन की मालिक नगरपालिका है, इसलिए वहां की जमीन पर तभी कोई गरीब मजदूर या महिला व्यापारी कुछ बेच सकती है जब उसे सरकारी लाइसेंस मिलेगा। मतलब योजनाओं में सड़क पर रोजगार करने वाली महिलाओं को कोई स्थान नहीं है। अपने देश में इस तरह के कामगारों की संख्या एक करोड़ से अधिक है। यह जो पूरी लड़ाई है, ये हमारे शहरों के अंदर की जगह के लिए है। इस जमीन पर कोई छोटा-सा रोजगार शुरू करती है तो उसे गैरकानूनी करार दिया जाता है। दूसरी तरफ ऐसी जमीन पर गुंड़ों का भी बोलबाला रहता है। महिलाएं इस कारण खदेड़ दी जाती हैं और पुरूष ही वहां किसी तरह जम पाते हैं। इसलिए हम महिला हाट बनाने की मांग करते हैं, ताकि कामगार महिलाएं वहां सुरक्षित होकर अपने छोटे से छोटे रोजगार आसानी से कर सकें। हमारे देश में छोटे-छोटे रोजगार की परंपरा रही है, इससे मध्य वर्ग के लोगों को रास्ते में जरूरत के सामान मिलते हैं।

महिला यूनियन के लिए सेवा पच्चीस लाख सदस्य बनाने पर क्यों जोर दे रही है?
यूनियन बढ़ाने के लिए। और सेवा पच्चीस लाख सदस्य पूरे देश में बना पाती है तो महिला मजदूरों के यूनियन की पहचान देश-विदेश में बनेगी। इससे उनको कई तरह के सहयोग मिलने के साथ उनकी कई तरह की परेशानियां भी दूर होंगी।

22 फरवरी 2009 को जनसत्ता के रविवारी में प्रकाशित हुई है।

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