Sunday 5 December 2010

‘भेड़िये’ कहानी पर नामवर सिंह की टिप्पणीः

परिन्दे की तारिफ में नामवर सिंह ने अपनी आलोचना की जमीन बनाते हुए लिखा थाः पढ़ने पर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह कहानी उसी भाषा की है जिसमें अभी तक लोग शहर, गांव, कस्बा और तिकोने प्रेम को लेकर जूझ रहे हैं। उनके इस वक्तव्य को लक्ष्य करते हुए जब उनसे भुवनेश्वर की भेड़िये कहानी की ओर इशारा किया गया तब सहसा उनका चेहरा चमका, कुछ ऐसा लगा कि गलत अंदाज के कारण कोई महत्वपूर्ण चीज उनसे छूट गयी है या समझने में ऐसी कोई खोट हुई है जिससे कहानी का इतिहास और आलोचना बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। उन्होंने कहा कि कहानी मुझे थोड़ी-थोड़ी याद है लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता कि हिंदी में, अपनी हिंदी में- तब की बात तो दूर है अब भी कोई ऐसी कहानी लिखी जा सकती है? फिर उन्होंने अंदाज बदला और कहा, मेरे भाई, यह कहानी निश्चित रूप से किसी विदेशी कहानी का अनुवाद है। जरा मुझे यह समझा दिजिए कि यह कहानी क्या है? किस तरह की है? और इसे हिंदी कहानी के रूप में कैसे विश्वासनीय माना जाये। आमतौर पर नामवर जी इस तरह की बातें अपने बुजुर्गों से भी नहीं करते। अपने विद्यार्थी से- एक अदना विद्यार्थी से- ऐसा कहना न केवल आकस्मिक था बल्कि उत्साहवर्धक भी था। लेकिन नामवर जी की यह एक शैली है। अक्सर वह जमीन से बातें उठाते हैं और साधारण कही जाने वाली स्थितियों में असाधारण और निरुपम की तलाश करते हैं। वह समय भी कुछ ऐसा था जब बातचीत के सिलसिले में बड़े छोटे का भेद मिट जाया करता है और खामख्याली, खैय्यामख्याली में बदल जाया करती है।

नामवर सिंह

मैंने कहानी को समझने के लिए नहीं, इम्तहान देने के लिए और एक अच्छी बारीक अर्थात् हिंदी की एक महत्वपूर्ण कहानी की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लोभ में भेड़िये को समझाने का खतरा उठाया और एक परीक्षार्थी की तरह कहानी के कुछ बारीक हिस्से उनके सामने किये। सबसे पहले मैंने उन्हें समझाया कि यह कहानी एक संज्ञा के नामिक रूपांतरण की कहानी है। किस तरह जिंदगी की निर्मम स्थितियां जीने की कोशिश, और मौत का हादसा- आदमी को क्रमशः आदमी के बाहर ले जाते हैं और  एक अच्छे-खासे जवान पट्ठे को बूढ़े बदहवास खूंखार इंसान में बदल देते हैं। किस तरह एक इफ्तिखार- खारू बन जाता है और किस तरह कहानी, शहर, गांव, कस्बे और तिकोने प्रेम की ऊंची चहारदीवारी के बाहर निकलकर एक वीरान रेगिस्तान, उड़ती हुई धूल और उसमें मीलों दूरी से दौड़ते हुए आदमखोर भेड़ियों के झुंड से जुड़ जाती है। इफ्तिखार के खारू के रूप में बदल जाने की नियति में, एक लंबा रेगिस्तान है, भागते हुए भेड़िये हैं, भागता हुआ गड्डा (बैलगाड़ी) है, भावनाहीन ढंग से फेकें हुए सामान है। खूबसूरत, मोटी, मुहब्बत से भरी लाचार औरतें हैं, बूढ़ा बाप है, नये जूते हैं और मौत की एक ऐसी दहशत है जो इफ्तिखार को खारू  बना देती है, भुवनेश्वर ने बड़ी सूक्ष्मता से रेगिस्तान के दहशत की रचना की है और उससे भी ज्यादा कौशल के साथ घटनाओं का चयन किया है।
पहली घटना है- भेड़ियों की बढ़ती हुई भीड़ से बचने के लिए बाप के संकेत पर खारू तीन बैलों में से एक बैल को खोल देता है। जब बैल खा लिये जाते हैं तो इफ्तिखार तीन में से सबसे मोटी नटिनी को उठाकर भेड़ियों के लिए फेंक देता है, जैसे वह औरत न हो मामूली सामान हो। नटिनी भागती है और फिर घूमकर खड़ी हो जाती है, यह जानकर कि भागना बेकार है, फिर भेड़िये के बीच ऐसे खो जाती है, जैसे कुएं में गिर पड़ी हो। दूसरी घटना है-  इफ्तिखार अपने बाप या बड़े मियां के संकेत से एक बैल और खोल देता है। बैल के खुलने पर बड़े मियां की आँख में आंसू आ जाते हैं। इसलिए बड़े मियां हुक्स देते हैं कि दूसरी लड़की भी फेंको। और दूसरी लड़की भी सामान की तरह गिरा दी जाती है। वह जैसे गिरती है वैसी ही पड़ी रहती है। तीसरी लड़की जिससे इफ्तिखार का प्रेम है, जब फेंके जाने की स्थिति में पहुंचती है तो इफ्तिखार कहता है कि, तुम खुद कूद पड़ोगी या मैं तुम्हें ढकेल दूं। लड़की चांदी की नथ उतारकर देती हुई बाहों से आँख बंद किये भेड़ियों के बीच कूद जाती है। तीसरी घटना और दहशत से भरी हुई है जब बड़े मियां अर्थात खारू का बाप कहता है कि मैं बूढ़ा आदमी हूं, मेरी जिंदगी खत्म हो गयी है, मैं कूद पड़ूंगा, बूढ़ा बाप मरने से पहले अपने नये जूते बेटे के लिए छोड़ता है और कहता है- मरे हुए आदमी के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना।
ये तीन घटनाएं इतनी सावधानी से चुनी गयी है कि इनके घटते-घटते बाकी जिंदगी के लिए इफ्तिखार खारू बन जाता है और उसकी आंखों में एक अनहोनी कठिनता आ जाती है। घटनाओं और स्थितियों को कहानीकार ने इतनी कुशलता से चुना है कि इन्हें एक संज्ञा से विकसित दूसरी संज्ञा के विकास स्तरों से अच्छी तरह छोड़ दिया है।
कहानी के रचना-तंत्र को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि नाम, स्थितियों और घटनाओं के चचन को, रचनात्मक क्रिया में रूपांतरण के लिए, लेखक किस तरह के शब्दों का चयन करता है। भेड़िये कहानी से तीन व्यक्तित्व नियामक इकाइयां चुनी जा सकती है। ये तीनों इकाइयां लेखकीय हैं और नाटक के रंग-निर्देश की तरह सूचनात्मक हैं।
पहली इकाईः
उसका असली नाम शायद इफ्तिखार या ऐसी ही कुछ था। पर उसका लघुकरण खारू बिल्कुल चस्पा होता था, उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह, दुर्भेद किठनता थी। उसकी आंखे ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूंछों के नीचे उसका मुख इतना ही अमीनुषी और  निर्दय था जितना एक चूहेदान।
दूसरी इकाईः
जीवन से वह निपटारा कर चुका था। मौत उसे नहीं चाहती थी। पर तब भी वह समय के मुंह पर थूककर जीवित था। तुम्हारी भली या बुरी राय की परवाह किये बिना भी वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो वह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक होता है।
तीसरी इकाईः
उसकी आँखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी और वह भूखा नंगा उठाकर सीधा खड़ा हो गया। व्यक्ति-सूचन और व्यक्तित्व-निर्णय के बीच लेखक ने कहानी में एक सौ सैंतालीस पंक्तियों का उपयोग किया है। ये पंक्तियां स्थिति-सूचन और घटना वर्णन के रूप में प्रयुक्त हुई हैं। स्थूल रूप में भाषिक-क्रिया को इन्हीं दो हिस्सों के बीच जीवन से संग्राम करते हुए एक आदमी के आस-पास ऐसी विरोधी जटिलताओं को उपस्थित किया है, जिसके भीतर सारी मानवीय संवेदनाएं निरस्त हो जाती हैं। कहानी के भीतर आदमी की शख्शियत को मार देने वाला जो खौफ है, वह इतना तेज है जितना रेगिस्तान में दौड़ता हुआ गड्डा(बैलगाड़ी) उतना तेज है जितना जिंदा आदमी का पीछा करता हुआ भेड़ियों का एक समूह, उतना तेज है जितनी आदमी के भीतर जिंदगी की खत्म होती हुई दिलचस्पियों की रफ्तार।
व्याख्याओं का यह सिलसिला खत्म होने के पहले ही नामवर जी का चेहरा फक्क पड़ चुका था और उन्हें यह लग गया था कि शहर, गांव, कस्बा और तिकोने प्रेम को लेकर जूझती हुई कहानी से अलग होने वाली पहली कहानी परिन्दे नहीं; भेड़िये है।
उन्होंने अपने मित्र नगेन्द्र सिंह की ओर मुड़कर देखा और मेरे बजाय उन्हीं से पूछना बेहतर समझा, क्या भेड़िये हिंदी की कहानी है? “ उत्तर मैंने ही दिया, जी हां, भेड़िये हिंदी की पहली सशक्त कहानी है जिसे पढ़े और समझे बिना लेखन और आलोचन दोनों स्तरों पर घटिया, भावुक और अमूर्त रचनाओं को प्रतिष्ठा मिलती रही है।

डॉ शुकदेव सिंह और डॉ नामवर सिहं की बातचीत का अंश।