Monday, 2 July 2012

क्यों लिखता है सआदत हसन मंटो


जब कोई ईमानदार नागरिक रात को सो नहीं पाता
जब कोई देशभक्त उदास  हो जाता है
जब कोई क़ाबिल जवान इम्प्लायमेंट एक्सचेंज की सीढ़ियों पर दिन गुज़ारता है
जब कोई बुद्धिजीवी किसी कारण किसी का पिछलग्गू बन जाता है
जब कोई लेखक इनाम और ख़िताब के मोह में दर-दर भटकता है
जब कोई व्यक्ति अदालत के बरामदे में बचपन से बुढ़ापे में पहुँच जाता है
जब कोई मरीज़ अस्पताल के दालान में बिस्तर लगाता है
जब कोई स्मगलर समाज में रुत्बा पाता है
जब कोई मुलाज़िम ताल्लुक़ात की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचता है
दोस्तो,
तब सआदत हसन मंटो कब्र से निकलकर लिखना शूरू कर देता है।

हैदराबाद के निज़ाम बड़े कंजूस थे...


हैदराबाद के निज़ाम के दौलत के बारे में बहुत-से क़िस्से मशहूर रहे हैं। वह बहुत मज़हबी और आलिम मुसलमान थे। वह और मुसलिम शासक वर्ग के कुछ लोग मिलाकर सन् 1947 से पूर्व भारत की सबसे विस्तृत और सबसे बड़ी आबादी वाली रियासत हैदराबाद पर शासन करते थे। उनकी रियासत उस उप-महाद्वीप के बीच में थी और उसमें 2 करोड़ हिन्दू और 30 लाख मुसलमान रहते थे। वह बहुत दुबले-पतले, छोटे-से क़द के बूढ़े आदमी थे। मुश्किल से सवा पाँच फीट का क़द रहा होगा और वज़न सिर्फ 90 पौंड। निज़ाम हिन्दुस्तान के एकमात्र शासक थे जिन्हें एक्ज़ाल्टेड हाइनेस का खिताब था; उन्हें यह सम्मान इसलिए दिया गया था कि उन्होंने पहले महायुद्ध के समय अँग्रेजों के युद्धकोष में ढाई करोड़ पौंड की रक़म दी थी।
1947 में निज़ाम दुनिया के सबसे अमीर आदमी माने जाते थे। उनकी दौलत के क़िस्से से ज्यादा मशहूर उनकी कंजूसी के किस्से थे जिसके सहारे वह इतनी दौलत बटोर पाये थे। वह बहुत ही मैला सूती पाजामा पहनते थे और उनके पैरों में बहुत ही घटिया क़िस्म की सलीपरें होती थीं, जो वह बाजार से कुछ रुपयों में ही मँगा लेते थे। पैंतीस साल से वह वही एक फफूँदी लगी हुई तुर्की टोपी पहनते आये थे। हालाँकि उनके पास सौ आदमियों को एक साथ खाना खिलाने भर के लिए काफी सोने के बर्तन थे, लेकिन वह अपने सोने के कमरे में चटाई पर बैठकर टीन की प्लेट में खाना खाते थे। वह इतने कंजूस थे कि उनके मेहमान सिगरेट पीकर जो बुझे हुए टुर्रे छोड़ जाते थे उन्हें वह फिर से सुलगा कर पी लेते थे। एक बार किसी खास मौक़े पर उन्हें शाही दस्तरख़ान पर शैम्पेन रखने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने बेदिली से एक बोतल मेज पर रखवायी, लेकिन इस बात कड़ी नज़र रखी कि वह पास बैठे हुए तीन-चार मेहमानों से आगे न जाने पाये। 1944 में जब लॉर्ड वेवेल वाइसराय की हैसियत से हैदराबाद आने वाले थे तो निज़ाम ने ख़ास तौर दिल्ली तार भिजवाकर पुछवाया कि लड़ाई के जमाने की ऊँची क़ीमतों को देखते हुए क्या वाइसराय साहब का सचमुच यह आग्रह होगा कि शैम्पेन पिलायी जाये। हफ़्ते में एक बार, इतवार को गिरजाघर से लौटते हुए अँग्रेज रेज़िडेंट उनके यहाँ आता था। हमेशा बड़ी पाबंदी से एक नौकर निज़ाम और उनके मेहमान के लिए ट्रे में एक प्याली चाय, एक बिस्कुट और एक सिगरेट रखकर लाता था। एक इतवार रेज़िडेंट साहब पहले से कोई सूचना दिये बिना किसी बहुत ही ख़ास मेहमान को अपने साथ लेकर आ गये। निज़ाम ने चुपके से नौकर के कान में कुछ कहा और वह दूसरे मेहमान के लिए भी एक ट्रे लेकर आया। उसमें भी वही एक प्याली चाय, एक बिस्कुट और एक सिगरेट रखी थी।
ज़्यादातर रियासतों में यह दस्तूर था कि साल में एक बार बड़-बड़े अमीर-उमरा और जागीदार अपने राजा को एक अशरफ़ी का नज़राना पेश करते थे; राजा अशरफी को छूकर ज्यों-का-त्यों वापस कर देता था। लेकिन हैदराबाद में नज़राने को इस तरह वापस कर देने का कोई दस्तूर नहीं था। निज़ाम हर अशरफी को झपटकर उठा लेते थे और अपने तख्त के पास रखे हुए कागज के एक थैले में डालते जाते थे। एक बार एक अशरफ़ी गिर पड़ी। निज़ाम फ़ौरन कुहनियों और घुटनों के बल रेंगते हुए इस लुढकती हुई अशरफ़ी को पकड़ने के लिए लपके।
निज़ाम का सोने का कमरा किसी गन्दी बस्ती की झोपड़ी की कोठरी मालूम होता था। उसमें टूटा-सा पलंग, एक टूटी-सी मेज और तीन टीन की कुर्सियों के अलावा कोई फ़र्नीचर नहीं था। हर ऐश-ट्रे जली हुई सिगरेटों के टुकड़ों और राख से ऊपर तक भरी रहती थी; यही हाल रद्दी कागज की टोकरियों का था जिन्हें साल में सिर्फ एक बार उनकी सालगिरह के दिन साफ़ किया जाता था। उनके दफ़्तर में धूल से अटे हुए सरकारी काग़ज़ों के ढेर लगे रहते थे और छत पर ढेरों मकड़ी के जाले।
फिर भी उस महल के अँधेरे कोनों में इतनी दौलत छुपी हुई थी कि कोई हिसाब नहीं। निज़ाम की मेज की एक दराज में एक पुराने अख़बार में लिपटा हुआ मशहूर जेकब हीरा रखा रहता था, जो नींबू के बराबर था, पूरे 280 कैरेट का जगमगाता हुआ अनमोल हीरा। निज़ाम उसे पेपरवेट की तरह इस्तेमाल करते थे। उनके बाग़ में जहां चारों ओर झाड़-झँखाड़ उगा रहता था दर्जनों ट्रकें ऊपर तक लदी हुई सोने की ठोस ईटों के बोझ की वजह से पहियों की धुरी तक कीचड़ से धँसी हुई खड़ी रहती थी। निज़ाम के हीरे-जवाहरात तहख़ानों के फ़र्श पर कोयले के टुकड़ों की तरह बिखरे पड़े रहते थे; नीलम, पुखराज, लाल हीरे के मिले-जुले ढेर जगह-जगह लगे रहते थे। कहा जाता था कि उनमें अकेले मोती ही इतने थे कि लन्दन के पिकैडिली सर्कस के सारे फ़ुटपाथ उनसे ढक जाते। उनके पास बीस लाख पौंड से ज्यादा नकद रकम रही होगी- पौंड और रुपयों में-जिसके उन्होंने पुराने अख़बारों में लपेटकर तहख़ानों और दुछत्तियों के धूल से अटे हुए कोनों में ढेर लगा रखे थे। वहाँ पड़े-पड़े निज़ाम की इस दौलत पर ब्याज तो क्या मिलता, उलटे उनमें से हर साल कई हज़ार पौंड के नोट चूहे कुतर जाते थे।
1947 के बाद तो निज़ाम भारत छोड़कर भाग गया, लेकिन उसके धन का क्या हुआ- शायद भारत सरकार को मालूम होगा???

भारत को आज़ादी देने में लुई माउंटबैटन ने की थी साज़िश


मैं जानता हूँ कि मुझे सम्राट की उपाधि छोड़नी पड़ेगी, लेकिन अगर भारत से सारे संबंध टूट गये तो मुझे बड़ा दुख होगा।
जार्ज षष्ठम अच्छी तरह जानते थे कि उस महान शाही सपने की चमक-दमक अब मंद पड़ गयी थी। लेकिन अगर उसे बिल्कुल गायब हो ही जाना है तो यह कितने दुख की बात होगी, अगर उसके बाद उसकी कुछ उपलब्धियाँ और गरिमाएँ भी बाकी न रह सकी, अगर वे बातें जिनका कि वह प्रतीक था, किसी ऐसे नये रूप में अभिव्यक्त न हो सकीं जो आधुनिक युग के अधिक अनुकूल हो!
जार्ज ने अपने भाई लुई माउंटबैटन के सामने अपना मत व्यक्त किया, बहुत ही दुख की बात होगी अगर स्वतंत्र भारत ने कामनवेल्थ की ओर से भी मुँह फेर लिया।
कॉमनवेल्थ सचमुच एक ऐसा ढाँचा प्रदान कर सकता था जिसमें जार्ज षष्ठम की आशाएँ पूरी हो सकती थी। वह स्वतंत्र राष्ट्रों की एक ऐसी बहु-जातीय सभा बन सकता था जिसका मेरुदण्ड ब्रिटेन हो, बराबर वालों में प्रथम। समान परम्पराओं, समान अतीत और समान प्रतीकात्मक बन्धनों से उनके ताज के साथ बँधा कॉमनवेल्थ विश्व के घटनाक्रम पर बहुत प्रभाव डाल सकता था। ऐसे संगठन के केन्द्र में रहकर ब्रिटेन अब भी विश्व के मंच पर उसी अन्दाज से बोल सकता जिसमें उसी शाही आवाज की गूँज होती जो किसी जमाने में उसकी थी। लन्दन अब भी लन्दन हो सकता था- दुनिया के बहुत बड़े हिस्से के लिए सांस्कृतिक, आत्मिक, वित्तीय और व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र। शाही ठाठ-बाट भले ही चला जाये, लेकिन वह छाया तो फिर भी बाकी रहेगी जिसकी बदौलत एक द्वीप तक सीमित जार्ज षष्ठम का राज्य चैनल के पार यूरोप के दूसरे राष्ट्रों से अलग पहचाना जायेगा।
इस आदर्श को पूरा करने के लिए जरूरी था कि भारत कॉमनवेल्थ में रहे। अगर भारत ने इंकार कर दिया तो यह लगभग निश्चित ही है कि अफ्रीका-एशिया के दूसरे राष्ट्र भी, जो आने वाले कुछ वर्षों में स्वतंत्र हो जायेंगे, कॉमनवेल्थ सम्राज्य के गोरे राज्यों की गिरोहबन्दी बनकर रह जायेगा।
केवल संवैधानिक राजा होने के कारण जार्ज षष्ठम अपनी इन आशाओं को पूरा करने के लिए कुछ भी तो नहीं कर सकते थे। उनके रिश्ते के भाई लुई माउंटबैटन अलबत्ता कुछ कर सकते थे क्योंकि भारत में नेहरू से उनके काफी अच्छे संबंध थे और नेहरू उनकी बातों से मुड़ने का हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। वह राजा की इन आकांक्षाओं में हार्दिक रूप से उनके साथ हो सकते थे। माउंटबैटन जानते थे कि नेहरू ही गाँधी और पटेल की बातें ताखे पर रख हमारी योजनाओं का समर्थक हो सकता है। जार्ज की बुद्धि ने तो यह समझ लिया था कि साम्राज्य का अवसान निकट है और इस बात को स्वीकार भी कर लिया था; लेकिन इस विचार के आते ही उनका मन मसोस उठता था।
कुछ ही दिन बाद माउंटबैटन ने एटली से आग्रह किया कि उन्हें जो जिम्मेदारियाँ सौंपी गयी है उनमें यह स्पष्ट आदेश भी शामिल कर दिया जाये कि यदि किसी प्रकार भी संभव हुआ तो वह संयुक्त या विभाजित स्वतंत्र भारत को कॉमनवेल्थ में रखने की पूरी कोशिश करेंगे। आने वाले सप्ताहों के दौरान भारत के नये वाइसराय ने किसी दूसरे काम की ओर इतना ध्यान नहीं दिया, किसी दूसरे काम के बारे में लोगों को समझा-बुझाकर राजी करने की इतनी कोशिश नहीं की, किसी दूसरे काम में इससे अधिक कुटिलता का परिचय नहीं दिया जितना कि भारत और अपने भाई के ताज के बीच संबंध बनाये रखने में।

15 अगस्त 1947 का काला दिन


जी हाँ, मैंने सत्ता सौंप देने की तारीख तय कर ली है। लुई माउण्बैटेन ने 5 जून 1947 को प्रेस कान्फ्रेंस में एक भारतीय संवाददाता की सवाल का जवाब दिया। जिस समय वह यह बात कह रहे थे उस समय भी बहुत-सी तारीखें उनेक दिमाग में तेजी से चक्कर काट रही थीं। सितम्बर के शुरू में? सितम्बर के बीच में? अगस्त के बीच में? अचानक ऐसा लगा कि जुआ खेलने की मेज पर तेजी से घूमती हुई सुई एक जगह आकर रुक गयी और गोली एक खाने में जाकर इस तरह से टिक गयी कि माउंटबैटन ने उसी क्षण फैसला कर लिया। इस तारीख के साथ उनके अपने जीवन की सबसे गौरवशाली विजय की याद जुड़ी हुई थीं। बर्मा के जंगलों में लम्बी लड़ाई इसी दिन समाप्त हुई थी और जापानी साम्राज्य ने बिना किसी शर्त के आत्म-समर्पण कर दिया था। नये लोकतांत्रिक एशिया के जन्म के लिए जापान के आत्म-समर्पण की दूसरी वर्षगाँठ से अच्छी तारीख़ और क्या हो सकती थी?
माउंटबैटन की आवाज अचानक भावनाओं के आवेश से रुँध गयी। उन्होंने एलान कर दियाःभारतीय हाथों में सत्ता अन्तिम रूप से 15 अगस्त 1947 को सौंपी जायेगी। बर्मा के जंगलों का विजेता भारत का मुक्तिदाता बन गया।
भारत की आजादी की तारीख़ का अचानक अपनी मर्जी से एलान करके माउंटबैटन भारतीय ज्योतिषियों और कई विद्वानों की नज़र में भारत की भविष्य का सत्यानाश कर दिया था। 1947 में 15 अगस्त को शुक्रवार पड़ने वाला था और शुक्रवार का दिन अशुभ होता है।
जैसे ही रेडियो पर माउंटबैटन की तय की हुई तारीख़ का एलान हुआ, सारे हिन्दुस्तान में ज्योतिषी अपने पंचांग खोलकर बैठ गये। पवित्र नगरी काशी के ज्योतिषियों ने और दक्षिण के ज्योतिषियों ने फ़ौरन एलान कर दिया कि 15 अगस्त का दिन इतना अशुभ है कि भारत के लिए अच्छा यही होगा कि हमेशा के लिए नरक की यातनाएँ भोगने के बजाय वह एक दिन के लिए अँग्रेजों का शासन और सहन कर ले।
कलकत्ता में स्वामी मदनानन्द ने इस तारीख़ की घोषणा सुनते ही अपना नवाँश निकाला और ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति देखते ही वह चीख पड़ेः क्या अनर्थ किया है इन लोगों ने? कैसा अनर्थ किया है इन लोगों ने!’
उन्होंने फ़ौरन माउंटबैटन को एक पत्र लिखाः भगवान के लिए भारत को 15 अगस्त को स्वतंत्रता न दीजिये। अगर इसके बाद बाढ़ तथा अकाल का प्रकोप और नर-संहार हुआ या देश का कोई अहित हुआ तो इसका कारण  केवल यह होगा कि स्वतंत्र भारत का जन्म एक अशुभ दिन हुआ था।
हम 2012 में भी देख रहे है कि 15 अगस्त 1947 का काला दिन आज तक भारत में छाया हुआ है। हमारे वेद में कहा गया है कि किसी शैतान का अच्छा दिन अक्सर इंसान का बुरा दिन होता है। माउंटबैटन का 15 अगस्त अच्छा दिन, संपूर्ण भारतवासी के लिए आज तक बुरा दिन बना हुआ है।