“मैं जानता हूँ कि मुझे सम्राट की उपाधि छोड़नी
पड़ेगी, लेकिन अगर भारत से सारे संबंध टूट गये तो मुझे बड़ा दुख होगा।”
जार्ज षष्ठम अच्छी तरह जानते थे कि उस महान शाही सपने की चमक-दमक अब
मंद पड़ गयी थी। लेकिन अगर उसे बिल्कुल गायब हो ही जाना है तो यह कितने दुख की बात
होगी, अगर उसके बाद उसकी कुछ उपलब्धियाँ और गरिमाएँ भी बाकी न रह सकी, अगर वे
बातें जिनका कि वह प्रतीक था, किसी ऐसे नये रूप में अभिव्यक्त न हो सकीं जो आधुनिक
युग के अधिक अनुकूल हो!
जार्ज ने अपने भाई लुई माउंटबैटन के सामने अपना मत व्यक्त किया, ‘बहुत ही दुख की बात होगी अगर स्वतंत्र भारत ने कामनवेल्थ की ओर से भी
मुँह फेर लिया।’
कॉमनवेल्थ सचमुच एक ऐसा ढाँचा प्रदान कर सकता था जिसमें जार्ज षष्ठम
की आशाएँ पूरी हो सकती थी। वह स्वतंत्र राष्ट्रों की एक ऐसी बहु-जातीय सभा बन सकता
था जिसका मेरुदण्ड ब्रिटेन हो, बराबर वालों में प्रथम। समान परम्पराओं, समान अतीत
और समान प्रतीकात्मक बन्धनों से उनके ताज के साथ बँधा कॉमनवेल्थ विश्व के घटनाक्रम
पर बहुत प्रभाव डाल सकता था। ऐसे संगठन के केन्द्र में रहकर ब्रिटेन अब भी विश्व
के मंच पर उसी अन्दाज से बोल सकता जिसमें उसी शाही आवाज की गूँज होती जो किसी
जमाने में उसकी थी। लन्दन अब भी लन्दन हो सकता था- दुनिया के बहुत बड़े हिस्से के
लिए सांस्कृतिक, आत्मिक, वित्तीय और व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र। शाही
ठाठ-बाट भले ही चला जाये, लेकिन वह छाया तो फिर भी बाकी रहेगी जिसकी बदौलत एक
द्वीप तक सीमित जार्ज षष्ठम का राज्य चैनल के पार यूरोप के दूसरे राष्ट्रों से अलग
पहचाना जायेगा।
इस आदर्श को पूरा करने के लिए जरूरी था कि भारत कॉमनवेल्थ में रहे।
अगर भारत ने इंकार कर दिया तो यह लगभग निश्चित ही है कि अफ्रीका-एशिया के दूसरे
राष्ट्र भी, जो आने वाले कुछ वर्षों में स्वतंत्र हो जायेंगे, कॉमनवेल्थ सम्राज्य
के गोरे राज्यों की गिरोहबन्दी बनकर रह जायेगा।
केवल संवैधानिक राजा होने के कारण जार्ज षष्ठम अपनी इन आशाओं को पूरा
करने के लिए कुछ भी तो नहीं कर सकते थे। उनके रिश्ते के भाई लुई माउंटबैटन अलबत्ता
कुछ कर सकते थे क्योंकि भारत में नेहरू से उनके काफी अच्छे संबंध थे और नेहरू उनकी
बातों से मुड़ने का हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। वह राजा की इन आकांक्षाओं में
हार्दिक रूप से उनके साथ हो सकते थे। माउंटबैटन जानते थे कि नेहरू ही गाँधी और
पटेल की बातें ताखे पर रख हमारी योजनाओं का समर्थक हो सकता है। जार्ज की बुद्धि ने
तो यह समझ लिया था कि साम्राज्य का अवसान निकट है और इस बात को स्वीकार भी कर लिया
था; लेकिन इस विचार के आते ही उनका मन मसोस उठता था।
कुछ ही दिन बाद माउंटबैटन ने एटली से आग्रह किया कि उन्हें जो
जिम्मेदारियाँ सौंपी गयी है उनमें यह स्पष्ट आदेश भी शामिल कर दिया जाये कि यदि
किसी प्रकार भी संभव हुआ तो वह संयुक्त या विभाजित स्वतंत्र भारत को कॉमनवेल्थ में
रखने की पूरी कोशिश करेंगे। आने वाले सप्ताहों के दौरान भारत के नये वाइसराय ने
किसी दूसरे काम की ओर इतना ध्यान नहीं दिया, किसी दूसरे काम के बारे में लोगों को
समझा-बुझाकर राजी करने की इतनी कोशिश नहीं की, किसी दूसरे काम में इससे अधिक
कुटिलता का परिचय नहीं दिया जितना कि भारत और अपने भाई के ताज के बीच संबंध बनाये
रखने में।