Wednesday, 4 August 2010

जनता की जनसरोकारिता

मानवता और समाज के विकास में आम आदमी की सीधी तौर से जिम्मेदारी होती है। अगर यह भागीदारी निभाने के लिए कोई जनता तैयार नहीं है तब समाज का स्वरूप क्या हो सकता है, इसका अनुमान लगाना भी भयावह है। इसी तरह के अनुभव आज सुबह मुझे देश की राजधानी नई दिल्ली में बस यात्रा के दौरान प्राप्त हुआ। मेरी बस यमुना नदी के पूरब की ओर से एक ऐतिहासिक पुल से गुजरता हुआ नई दिल्ली की ओर सरपट दौड़ती हुई आ रही थी। मैं और सहयात्री यमुना नदी की बदले हुए काया को देखकर आनंदित हो रहे थे और सभी लोगों के दिल व दिमाग को सुकून मिल रहा था कि यमुना नदी के रंग काले से बदल कर पीलापन लिए हुए है। कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि इसी तरह यमुना नदी में पानी का बहाव बना रहा तो संभव है कि आने वाले समय में यमुना जी का रंग काला के बदले उनकी अपनी प्रकृतिक रंग देखने के लिए नसीब हो। कोई कह रहा था, यह बारसात के मौसम का और हरियाणा में आए हुए बाढ़ की कृपा है जिसने यमुना जी के रंग को काला से गोरा बना दिया है।
इसी तरह यमुना नदी को निहारते हुए जितनी आँखे देख रही थी उतनी ही जुब़ान उनके गीत गा रहे थे। जब हमारी बस नदी की ठीक बीच में आई तब एक आदमी अचानक हड़बड़ाकर उठा और बस के गेट पर आकर कहने लगा कि मुझे घर के पूजा के फूल नदी में विसर्जित करना है। उसके हाथ में एक बड़ा थैला था। ठीक उसी समय पुल पर ट्रैफिक जाम हो गई और उस आदमी के लिए स्वर्ग के दरवाजा भी खुल गए। बस में बैठे उसके साथ के लोग उसे सीखा रहे थे कि बस जब रूकेगी तब जल्दी से उतर कर वह तेजी से अपने काम को अंजाम दे दे। वह फुर्ती से उतरा और पुल पर बने बेड़े से नदी में छपाक से अपनी भगवान पर चढ़ाए हुए श्रद्धा को फेंक दिया। उसके चेहरे पर खुशी की लकीर देखे जा सकते थे।
लोगों के आपसी हलचल सुनकर मेरी नज़र उस आदमी पर गई। मेरी ज़ुबान से सहसा निकल पड़ा, बहुत अच्छा-बहुत अच्छा, शाबाश! मुझे खुशी हुई कि आपने यह काम अपने खुशी के लिए किया। आप क्यों नहीं करेंगे? यही काम करके तो सारी दिल्ली के लोग पूरे देश में समझदार कहे जाते हैं, सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे कहे जाते हैं। इसी काम से दिल्ली के लोग इतने धन्नाठ और रसूखदार हुए हैं। तब आप भला क्यों अपनी समझदारी का सामूहिक प्रदर्शन करने में पीछे रहेंगे।
मेरी कही गई बात सुनकर सम्मानीय यात्रीगण मुस्कुरा रहे थे। कुछ लोग आँखे खोलकर संपूर्ण नाटक का मज़ा ले रहे थे। लेकिन वह आदमी निर्भीक था, लेकिन हां थोड़ा सहमा-सहमा भी जरूर था। वह पुन: अपनी जगह पर आ गया था। मेरी बातों का उसने जवाब देना जरूरी समझा और कहा कि “यह मुद्दा बहस का नहीं है। उस थैला में मेरे घर के पूजा का फूल था जो नदी में प्रवाहित करने के लिए होता है।”
इस कार्यक्रम के मुख्य बातें बस इतना ही है। फिर क्या हुआ? यह तो आप सब जानते हैं। हर कार्यक्रम की एक अवधि होती है। मसलन कहीं पर किसी की हत्या कर दी जाती है। वहां से लाश चली है। पुलिस भी अपनी भूमिका अदा कर चले जाते हैं। उसके बाद उस स्थान पर क्या कुछ हुआ। सारा घटनाक्रम वहां लोग या कहे इस सामाज के लोगों के दिमाग से छूमंतर हो जाता है।
अलबत्ता बस में भी यही हुआ। सभी लोग फिर से अपनी नयनसुख भोगते हुए यमुना नदी का पुल पार कर गए। लेकिन सवाल स्थिर है, सहमा हुआ सा है। इस समाज के लोग क्यों नहीं जनसरोकार के विषय को बहस का मुद्दा बनाते हैं। क्या कभी ऐसा हो सकता है कि इस दिल्ली में रहने वाले लोग सिर्फ एक दिन अपनी ऑफिस ड्यूटी को किनारे कर इस समाज के सबसे महत्वपूर्ण ड्यूटी को पूरा करेगा। सभी लोग सड़क पर उतर कर यमुना नदी में फेंके जा रहे कचरे रोके, नदी में खोले गए नाले के मुहाने को बंद करे दे। साथ ही एक चेतावनी दिया जाए कि यदि आगे से कभी यमुना नदी को गंदा करने की कोशिश की गई तो दिल्ली में एक बार फिर 1857 की तरह यमुना नदी की आजादी के लिए दिल्ली जल उठेगा।
एक स्वस्थ समाज के लिए जरूरी होता है कि वह हिंसामुक्त हो। लेकिन समाज में सुधार और पृथ्वी के स्वास्थ के लिए कुछ कठोर निर्णय लेना ही होगा। हम पृथ्वी पर रहते हुए पृथ्वी को ही क्यों भूल गए हैं। हम इसके बनावट से अनजान नहीं रह सकते? आखिर इस पृथ्वी को हम मानव से और भला क्या चाहिए, सिर्फ यही न कि यहां के पांच तत्वों को उनके प्राकृतिक स्वरूप में बने रहने दें। हम लोग इस पृथ्वी से इतना कुछ पाते हैं। उसके बदले में केवल और केवल पांच मांगे पूरी नहीं कर सकते? आखिर कब तक...

No comments:

Post a Comment