भुवनेश्वर नाम के लेखक के साथ क्या किया जाए, यह हिन्दी साहित्य तय नहीं कर पाया है। इसलिए उसने उन्हें भुला दिया है। भुनेश्वर बोहेमियन थे। यह बात उनके प्रतिकूल गई। निराला में भी यह तत्व दिखाई देता है, पर इसे उनकी अन्य महानताओं के साथ जोड़ कर देखा जाता है। भुवनेश्वर के साथ एक और समस्या थी। वे बेहद कटु आदमी और उतने ही कटु लेखक थे। शायद ऑस्कर वाइल्ड उनके आदर्श थे। वाइल्ड दुनिया से ऊबे हुए, एक तरह के निराशावादी थे। पर उन्हें हंसना-हंसाना खूब आता था। इसने उनके लिए संजीवनी का काम किया। इसी के बल पर उन्हें उस समय के संभ्रांत परिवारों की गप्प-गोष्ठियों में आमंत्रित किया जाता था।
भुवनेश्वर ने अपने घमंड में गरीबी का रास्ता अपनाया। वे अपने समय के अधिकतर लेखकों से घृणा करते थे। पंत और निराला उनकी निगाह में नाचीज थे। भुवनेश्वर की गलती यह थी कि उन्होंने अपने मन की यह बात लिख कर भी कह दी। उनकी साहित्यिक ‘औकात’ को देखते हुए उनकी बात पर विचार तक करना जरूरी नहीं समझा गया। हो सकता है, वह स्नॉब भी रहे हों, जैसा कि उस समय के एक-दो साहित्यिकों ने आरोप भी लगया है। यह तो पता नहीं भुवनेश्वर किस जाति के थे। शायद वे किसी सम्मानित और संगठित जाति के नहीं थे। इसलिए हिंदी साहित्य के वातावरण में उनके लिए जगह निश्चित थी- उपेक्षा और अवहेलना के स्तूपों से भरी हुई वह जगह, जहां दृढ़ मनोबल न हो, तो आदमी अपने आप आत्म-घृणा और आत्म-दया से नहीं तो आत्म-हीनता से घिर जाता है। भुवनेश्वर की जिंदगी और उनकी लेखकी, दोनों की मौत तिल-तिल कर हुई।
इस सबके बावजूद भुवनेश्वर में कुछ ऐसा लेखकीय तत्व था, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वह भले ही महान लेखक न रहे हों, पर हिंदी में अपने ढंग के अकेले लेखक थे। भुवनेश्वर ने ज्यादा नहीं लिखा- अपनी जिंदगी और उस समय के साहित्य ने इसकी मोहलत ही कहां दी, पर इतना कम भी नहीं लिखा कि उन्हें लेखक मानने में संकोच हो। अगर चंद्रधर शार्मा गुलेरी अपनी एक कहानी के बल पर, हालांकि लिखी उन्होंने कई थी, कालजीवी हो सकते है, तो भुवनेश्वर के पास भी ‘भेड़िये’ नाम की एक ऐसी कहानी थी जो उससे उन्नीस नहीं है।
कोई भी सूझ-बूझ वाला आदमी यही कहेगा कि ‘भेड़िये’ को पाठ्य पुस्तकों में जरूर स्थान मिलना चाहिए था। अगर ‘उसने कहा था’ कक्षा दस या बारह तक के छात्रों के लिए उपयुक्त है, तो ‘भेड़िये’ को अंडरग्रंजुएट पाठ्यक्रमों में स्थान मिलना चाहिए। इस कहानी में जीवन मे जघन्यतम यथार्थ को बहुत ही सशक्त ढंग से चित्रित किया गया है और मनुष्यता का एक टिमटिमाता हुआ दीया भी है, जो अंततः इस दुष्ट यथार्थ पर भारी पड़ता है। विद्यार्थियों को यह जानने का पूरा हक है कि जिजीविषा कितनी कमीनी चीज हो सकती है और यह भी कि ऐसा होते हुए भी आदमीयत बची हुई है- शायद अंत तक बची रहेगी।
भुवनेश्वर मानते थे कि यह जिंदगी जीने लायक नहीं है या कम से कम यह कि जो जिंदगी हम जी रहे हैं, वह जीने लायक नहीं है। जब पश्चिम के विचारक यह कहते हैं, तो हम संजीदा हो जाते हैं और इस मान्यता के दार्शनिक पहलुओं पर विचार करने लगते हैं। लेकिन जब भुवनेश्वर ने यह बात एक लेखक के तौर पर कही, तो उसे सुनने तक से इन्कार कर दिया गया- ऐसा बेदर्द है हिन्दी का साहित्य मोहल्ला। लंबा होने के बावजूद भुवनेश्वर की अनादृत कहानी ‘सूर्यपूजा’ का यह अंश उद्धृत करने के सर्वथा योग्य है- यह तो नरक है, डॉक्टर , नरक! यह मुर्दों की बस्ती है। यह भरा-पूरा शहर मुर्दों की बस्ती है...
भुवनेश्वर एक लेखक... |
भुवनेश्वर ने अपने घमंड में गरीबी का रास्ता अपनाया। वे अपने समय के अधिकतर लेखकों से घृणा करते थे। पंत और निराला उनकी निगाह में नाचीज थे। भुवनेश्वर की गलती यह थी कि उन्होंने अपने मन की यह बात लिख कर भी कह दी। उनकी साहित्यिक ‘औकात’ को देखते हुए उनकी बात पर विचार तक करना जरूरी नहीं समझा गया। हो सकता है, वह स्नॉब भी रहे हों, जैसा कि उस समय के एक-दो साहित्यिकों ने आरोप भी लगया है। यह तो पता नहीं भुवनेश्वर किस जाति के थे। शायद वे किसी सम्मानित और संगठित जाति के नहीं थे। इसलिए हिंदी साहित्य के वातावरण में उनके लिए जगह निश्चित थी- उपेक्षा और अवहेलना के स्तूपों से भरी हुई वह जगह, जहां दृढ़ मनोबल न हो, तो आदमी अपने आप आत्म-घृणा और आत्म-दया से नहीं तो आत्म-हीनता से घिर जाता है। भुवनेश्वर की जिंदगी और उनकी लेखकी, दोनों की मौत तिल-तिल कर हुई।
इस सबके बावजूद भुवनेश्वर में कुछ ऐसा लेखकीय तत्व था, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वह भले ही महान लेखक न रहे हों, पर हिंदी में अपने ढंग के अकेले लेखक थे। भुवनेश्वर ने ज्यादा नहीं लिखा- अपनी जिंदगी और उस समय के साहित्य ने इसकी मोहलत ही कहां दी, पर इतना कम भी नहीं लिखा कि उन्हें लेखक मानने में संकोच हो। अगर चंद्रधर शार्मा गुलेरी अपनी एक कहानी के बल पर, हालांकि लिखी उन्होंने कई थी, कालजीवी हो सकते है, तो भुवनेश्वर के पास भी ‘भेड़िये’ नाम की एक ऐसी कहानी थी जो उससे उन्नीस नहीं है।
कोई भी सूझ-बूझ वाला आदमी यही कहेगा कि ‘भेड़िये’ को पाठ्य पुस्तकों में जरूर स्थान मिलना चाहिए था। अगर ‘उसने कहा था’ कक्षा दस या बारह तक के छात्रों के लिए उपयुक्त है, तो ‘भेड़िये’ को अंडरग्रंजुएट पाठ्यक्रमों में स्थान मिलना चाहिए। इस कहानी में जीवन मे जघन्यतम यथार्थ को बहुत ही सशक्त ढंग से चित्रित किया गया है और मनुष्यता का एक टिमटिमाता हुआ दीया भी है, जो अंततः इस दुष्ट यथार्थ पर भारी पड़ता है। विद्यार्थियों को यह जानने का पूरा हक है कि जिजीविषा कितनी कमीनी चीज हो सकती है और यह भी कि ऐसा होते हुए भी आदमीयत बची हुई है- शायद अंत तक बची रहेगी।
भुवनेश्वर मानते थे कि यह जिंदगी जीने लायक नहीं है या कम से कम यह कि जो जिंदगी हम जी रहे हैं, वह जीने लायक नहीं है। जब पश्चिम के विचारक यह कहते हैं, तो हम संजीदा हो जाते हैं और इस मान्यता के दार्शनिक पहलुओं पर विचार करने लगते हैं। लेकिन जब भुवनेश्वर ने यह बात एक लेखक के तौर पर कही, तो उसे सुनने तक से इन्कार कर दिया गया- ऐसा बेदर्द है हिन्दी का साहित्य मोहल्ला। लंबा होने के बावजूद भुवनेश्वर की अनादृत कहानी ‘सूर्यपूजा’ का यह अंश उद्धृत करने के सर्वथा योग्य है- यह तो नरक है, डॉक्टर , नरक! यह मुर्दों की बस्ती है। यह भरा-पूरा शहर मुर्दों की बस्ती है...
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