“भेड़िया क्या है”, खारू बंजारे ने कहा, “मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ।” मैंने उसका विश्वास कर लिया। खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालांकि सत्तर के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा-सा देख पड़ता था। पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था। उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था, पर तब भी उसकी लघुकरण ‘खारू’ बिल्कुल चस्पा होता था। उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी। उसकी आंखे ठंडी और जमी हुई थी और घनी सफेद मूंछों के नीचे उसका मुंह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान।
जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी, पर तब भी वह समय के मुंह पर थूककर जीवित था। तुम्हारी भली या बुरी राय की परवाह किये बिना भी वह कभी झूठ नहीं बोलता था और भयानक हो सकता है। खारू ने मुझसे यह कहानी कही थी। उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ- इसका एक-एक लफ्ज।
“मैं किसी चीज से नहीं डरता, हां सिवा भेड़िये के मैं किसी चीज से नहीं डरता, खारू ने कहा।” एक भेड़िया नहीं, दो चार नहीं। भेड़ियों का झुंड- दो सौ-तीन सौ जो जाड़े के रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिसकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उनका-उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता। लोग कहते हैं, अकेला भेड़िया कायर होता है। यह झूठ है। भेड़या कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ चौकन्ना होता है। तुम करते हो लोमड़ी चालाक होती है, तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं। तुमने कभी भेड़िये को शिकार करते देखा है किसी का-बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नही दिखाता। एक मरतबा सिर्फ एक मरतबा- गेंद-सा कूदकर उसकी जांघ में गहरा जख्म कर देता है- बस। फिर पीछे बहुत पीछे रहकर टपकते हुए खून की लकीर पर चलकर वहां पहुंच जाता है जहां वह बारहसिंगा कमजोर होकर गिर पड़ा है। या, उचककर एक क्षण में अपने-से तिगुने जानवर को पेट चाक कर देता है- और वहीं चिपक जाता है। भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है। वह थकना तो जानता ही नहीं। अच्छे पछैयां बैल हमारे बंजारी गड्डों को घोडों से तेज ले जाते हैं और जब उन्हें भेड़ियों की बू आती है, तो भागते नहीं, उड़ते हैं। लेकिन भेड़िये से तेज कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता।
“सुनो, मैं ग्वालियर के राज स आईन में आ रहा था। अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल चुके थे। हमारा गड्डा काफी भारी था। मैं, मेरा बाप; गिरस्ती और तीन नटनियाँ- पंद्रह, सोलह साल की। हमलोग उन्हें पछांह लिये जा रहे थे।”
“किसलिए” – मैंने पूछा।
तुम्हारा क्या ख्याल है, मुजरा कराने? अरे बेचने के लिए। और वह किस मतलब की हैं। ग्वालियर की नटनियां छोटी-छोटी गदबदी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती है। यह लड़कियां होती तो बड़ी चोखी हैं, पर भारी भी खूब होती हैं। हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन घोड़ों से तेज भागने वाले बैल।
हमलोग तड़के ही चल दिए थे,
दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे। वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी। बैल हौसले से भाग रहे थे और हमलोग दस मील निकल आये थे कि बड़े मियां ने घूमकर कहा, “खारे भेड़िये हैं?”
“मैंने तेजी से कहा, क्या कहां? भेड़िये हैं? होते तो बैल न चौंकते?”
बूढ़े ने सर हिलाकर कहा, ‘नहीं, भेड़िये जरूर हैं। खैर वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास मील और जाना है।’ बूढ़े ने कहा, और मैं इन भेड़ियों को जानता हूं; पारसाल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा। बंदूक भर लो।
मैंने कमानों को तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था।
‘बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख ले।‘ मेरे बाप ने कहा।
बारूद की पोंगली- मैंने कहा, मेरे पास तो पुरानी ही वाली है।
तब बूढ़े ने मुझे गालियां देनी शुरू की, तू यह है, तू वह है।
मेरे बाप ने भी सब टटोला, तू झूठ बोलता है, तू भेड़िये की औलाद, मैंने तुझे नई पोंगली दी थी! –पर वह बारूद यहां कहीं नहीं थी। मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, शहर पहुंचकर मैं तेरी खाल उधेड़ दूंगा, शहर पहुंचकर... और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूंछ हिलाकर जोर से भागे। मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खंडहरों में आंधी गुजरने से आती है-
हवा आ आ आ आ आ आ आ!
हवा- मैंने सहम के कहा। ‘भेड़िये’! मेरे बाप न नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया। पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी। उन्हें भेड़ियों की बू आ गयी थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे। दूर मैं एक छोटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था. उस सैकड़ों मील क चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो, और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाये, मारो। एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूंगा, और तब उन तीनों लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए बहाना शुरू किया। ‘चुप रहो’ – मैंने उनसे कहा, तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला।
“भेड़ियें बढ़ते हुए चले आते थे, हमलोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक संभालकर बैठा। मैंने कमान संभाली- मैं अंधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप- वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जाता था। कोई चार सौ गज पर मेरे बाप ने आगेवाले भेड़िये को गिरा दिया। धायं! उसने नटों की तरह एक कला-बाजी खायी; और फिर दूसरी बिल्कुल नटों की तरह। बैल पागल होकर भाग रहे थे, हवा में उनके मुंह का फेन उड़कर हमारे मुंहों पर मेह की तरह गिरता था; और वे रंभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्याहने वाली भैंसों की नकलें करती हैं। पर भेड़ियें नजदीक ही आत जा रहे थे। गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना रूके खा लेते थे वे उनके ऊपर तैर जात थे। मेरे बाप ने मेरे कंधे पर बंदूक की नली रख ली थी। धायं धायं! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है।) मैंने भी सोलह तीरों से सोलह ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने दस मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था।
ले बंदूक ले! उसने कहा, मैं बैलों को देखूगा।
उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग सकते थे, पर यह खयाल गलत था। दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे।
मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक । खैर, वह लड़की उस पांच मिनट में भर देती थी। बादी अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था- अचूक। मैंने दस और गिराये- धायं-धायं-धायं! जब सब बारूद खत्म हो गयी तो भेड़िये भी कुछ हारे से मालूम होते थे।
मैंने कहा, अब वे पिछड़ गये।
बूढ़ा हंसा, वह- इतनी-सी बात स नहीं पिछड़ सकते। पर मैं मारते-मारते कह चलूंगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा निशानेबाज नहीं है।
मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हंसोड़ हो गया था।
हां, तो भेड़िये कुछ पीछे रह गये थे। उन्हें कुछ खाने को मिल गया था। सप-सप-चट, बैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पांच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया। वे हमसे दो सौ गज पर रह गये होंगे और बढ़ते ही आते थे। मेरे बाप ने कहा, सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो।
एक बारगी ठोकर खाकर गड्डा चकराकर चला। पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था, और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था, और कुछ देर तो हम भेड़ियों से दूर निकलते मालूम हुए, पर तुरंत ही वे फिर वापस आ गये।
बड़े मियां ने कहा, अब तो, एक बैल खोल दो।
क्या? मैंने कहा, दो बैल गड्डा खींच ले जायेगा?
उसने कहा, अच्छा, तब एक नटनियां फेंक दो। मैंने उन तीन से मोटी को ही उठाया और गड्डा के बाहर झुलाकर फेंक दिया। हां! ग्वालियर की नटनिया, उसके दांत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी पर यह जानकर कि भागना बेकार है, घूमकर खड़ी हो गयी और सामनेवाले भेड़िये की टांग पकड़ लीं। पर इससे भी क्या फायदा था। एकदम वह नजर से ओझल हो गयी। जैसे किसी कुएं में गिर पड़ी हो। गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर लौट आये।
दूसरी फेंको, बड़े मियां ने कहा। पर अब की मैंने कहा, आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो।
मैंने एक बैल खोल दिया। वह पीठ पर पूंछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया।
मेरे बाप की आंखों में आंसू भर आये। बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था... वह बुदबुदा रहा था।
हम बच तो गये- मैंने कहा। पर तभी, हवा आ आ आ आ आ आ! गोल वापस आ गया था। आज कयामत का दिन है, -मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया।
पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चल आ रहे थे हमारे बैल मर के गिरना ही चाहते थे। दूसरी लड़की भी फेंको!- मेर बाप न चीखकर कहा।
इन दोनों में बादी भारी थी और कुछ सोचकर कांपते हाथों वह अपनी चांदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी।
इसलिए मैंने दूसरी से कहा, तू निकल! पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था। मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही। गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा। पर पांच ही मिनट में भेड़िये फिर वापस आ गये। बड़े मियां ने गहरी सांस ली, माथा पीट लिया- हम क्या करें, भीख मांग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस बनने चले थे...
मैंने बादी की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ। मैंने कहा, तुम खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें ढकेल दूं। उसने चांदी की नथ उतारकर मुझे दे दी और बांहों से आंखें बंद किये कूद पड़ी। गड्डा बिल्कुल हवा से उड़ने लगा। वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था।
पर हमारे बैल बेहद थक गये और बस्ती तक पहुंचने के लिए अब भी तीस मील बाकी थे। मैं बंदूक के कूंदे से
उन्हें मार रहा था। पर भेड़िये फिर लौट आये थे।
मेरे बाप के मुंह से पसीना टपकने लगा, लाओ दूसरा भी बैल खोल दें।
मैंने कहा, यह मौत के मुंह में जाना है। हमलोग दोनों मारे जायेंगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए।
तुम ठीक कहते हो. उसने कहा, मैं बूढ़ा आदमी हूं। मेरी जिंदगी खत्म हो गयी। मैं कूद पडूंगा।
मैंने कहा, निराश मत होना। मैं जिंदा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूंगा।
तू मेरा असील बेटा है! मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये। उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छुरियां ले लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया!
रुको, उसने कहा, मैं नये जूते पहने हूं, मैं इन्हें दस साल पहनता, पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना।
उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिये और भेड़ियों के बीचोंबीच कूद पड़ा। मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा, यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट!चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया।
खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ देखा जोर से हंसा और खखार-कर बहुत-सा जमीन पर थूक दिया।
मैंने दूसरे ही साल उसमें से साठ भेड़िये और मारे। खारू ने फिर हंसकर कहा पर उसके साथ ही उसकी आंखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया।
(यह प्रसिद्ध कथाकार भुनेश्वर की रचना है। इसे हंस ने सन् 1991 के मई अंक में प्रकाशित किया था। यह कहानी इतनी विचारोत्तेजक है कि इसे अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करने से रोक नहीं पाया।)
यह कहनी मेरी कुछ एक पसंदीदा कहानियों में से एक है ....thank you
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